हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 50 ☆ कृति चर्चा : गीत स्पर्श – डॉ. पूर्णिमा निगम ‘पूनम’ ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताeह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा  डॉ पूर्णिमा निगम  ‘पूनम ‘ के गीत संग्रह  ‘गीत स्पर्श’ पर कृति चर्चा।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 50 ☆ 

☆ कृति चर्चा : गीत स्पर्श – डॉ. पूर्णिमा निगम ‘पूनम’ ☆

गीत स्पर्श : दर्द के दरिया में नहाये गीत

चर्चाकार – आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

[कृति विवरण: गीत स्पर्श, गीत संकलन, डॉ. पूर्णिमा निगम ‘पूनम’, प्रथम संस्करण २००७, आकार २१.से.मी.  x १३.से.मी., आवरण बहुरंगी पेपरबैक, पृष्ठ १२२, मूल्य १५० रु., निगम प्रकाशन २१० मढ़ाताल जबलपुर। ]

साहित्य संवेदनाओं की सदानीरा सलिला है। संवेदनाविहीन लेखन गणित की तरह शुष्क और नीरस विज्ञा तो हो सकता है, सरस साहित्य नहीं। साहित्य का एक निकष ‘सर्व हिताय’ होना है। ‘सर्व’ और ‘स्व’ का संबंध सनातन है। ‘स्व’ के बिना ‘सर्व’ या ‘सर्व’ के बिना ‘स्व’ की कल्पना भी संभव नहीं। सामान्यत: मानव सुख का एकांतिक भोग करना चाहता है जबकि दुःख में सहभागिता चाहता है।इसका अपवाद साहित्यिक मनीषी होते हैं जो दुःख की पीड़ा को सहेज कर शब्दों में ढाल कर भविष्य के लिए रचनाओं की थाती छोड़ जाते हैं। गीत सपर्श एक ऐसी ही थाती है कोकिलकंठी शायरा पूर्णिमा निगम ‘पूनम’ की जिसे पूनम-पुत्र शायर संजय बादल ने अपनी माता के प्रति श्रद्धांजलि के रूप में प्रकाशित किया है। आज के भौतिकवादी भोगप्रधान कला में दिवंगता जननी के भाव सुमनों को सरस्वती के श्री चरणों में चढ़ाने का यह उद्यम श्लाघ्य है।

गीत स्पर्श की सृजनहार मूलत: शायरा रही है। वह कैशोर्य से विद्रोहणी, आत्मविश्वासी और चुनौतियों से जूझनेवाली रही है। ज़िंदगी ने उसकी कड़ी से कड़ी परीक्षा ली किन्तु उसने हार नहीं मानी और प्राण-प्राण से जूझती रही। उसने जीवन साथी के साथ मधुर सपने देखते समय, जीवन साथी की ज़िंदगी के लिए जूझते समय, जीवनसाथी के बिछुड़ने के बाद, बच्चों को सहेजते समय और बच्चों के पैरों पर खड़ा होते ही असमय विदा होने तक कभी सहस और कलम का साथ नहीं छोड़ा। कुसुम कली सी कोमल काया में वज्र सा कठोर संकल्प लिए उसने अपनों की उपेक्षा, स्वजनों की गृद्ध दृष्टि, समय के कशाघात को दिवंगत जीवनसाथी की स्मृतियों और नौनिहालों के प्रति ममता के सहारे न केवल झेला अपितु अपने पौरुष और सामर्थ्य का लोहा मनवाया।

गीत स्पर्श के कुछ गीत मुझे पूर्णिमा जी से सुनने का सुअवसर मिला है। वह गीतों को न पढ़ती थीं, न गाती थीं, वे गीतों को जीती थीं, उन पलों में डूब जाती थीं जो फिर नहीं मिलनेवाले थे पर गीतों के शब्दों में वे उन पलों को बार-बार जी पाती थी। उनमें कातरता नहीं किन्तु तरलता पर्याप्त थी। इन गीतों की समीक्षा केवल पिंगलीय मानकों के निकष पर करना उचित नहीं है। इनमें भावनाओं की, कामनाओं की, पीरा की, एकाकीपन की असंख्य अश्रुधाराएँ समाहित हैं। इनमें अदम्य जिजीविषा छिपी है। इनमें अगणित सपने हैं। इनमें शब्द नहीं भाव हैं, रस है, लय है। रचनाकार प्राय: पुस्तकाकार देते समय रचनाओं में अंतिम रूप से नोक-फलक दुरुस्त करते हैं। क्रूर नियति ने पूनम को वह समय ही नहीं दिया। ये गीत दैनन्दिनी में प्रथमत: जैसे लिखे गए, संभवत: उसी रूप में प्रकाशित हैं क्योंकि पूनम के महाप्रस्थान के बाद उसकी विरासत बच्चों के लिए श्रद्धा की नर्मदा हो गई हिअ जिसमें अवगण किया जा सकता किन्तु जल को बदला नहीं जा सकता। इस कारण कहीं-कहीं यत्किंचित शिल्पगत कमी की प्रतीति के साथ मूल भाव के रसानंद की अनुभूति पाठक को मुग्ध कर पाती है। इन गीतों में किसी प्रकार की बनावट नहीं है।

पर्सी बायसी शैली के शब्दों में ‘ओवर स्वीटेस्ट सांग्स आर दोस विच टेल ऑफ़ सेडेस्ट थॉट’। शैलेन्द्र के शब्दों में- ‘हैं सबसे मधुर वो गीत जिन्हें हम दर्द के सुर में गाते हैं’। पूनम का दर्द के साथ ताज़िंदगी बहुत गहरा नाता रहा –

भीतर-भीतर रट रहना, बहार हंसकर गीत सुनाना

ऐसा दोहरा जीवन जीना कितना बेमानी लगता है?

लेकिन इसी बेमानीपन में ज़िंदगी के मायने तलाशे उसने –

अब यादों के आसमान में, बना रही अपना मकान मैं

न कहते-कहते भी दिल पर लगी चोट की तीस आह बनकर सामने आ गयी –

जान किसने मुझे पुकारा, लेकर पूनम नाम

दिन काटे हैं मावस जैसे, दुःख झेले अविराम

जीवन का अधूरापन पूनम को तोड़ नहीं पाया, उसने बच्चों को जुड़ने और जोड़ने की विरासत सौंप ही दी –

जैसी भी है आज सामने, यही एक सच्चाई

पूरी होने के पहले ही टूट गयी चौपाई

अब दीप जले या परवाना वो पहले से हालात नहीं

पूनम को भली-भाँति मालूम था कि सिद्धि के लिए तपना भी पड़ता है –

तप के दरवाज़े पर आकर, सिद्धि शीश झुकाती है

इसीलिए तो मूर्ति जगत में, प्राण प्रतिष्ठा पाती है

दुनिया के छल-छलावों से पूनम आहात तो हुई पर टूटी नहीं। उसने छलियों से भी सवाल किये-

मैंने जीवन होम कर दिया / प्रेम की खातिर तब कहते हो

बदनामी है प्रेम का बंधन / कुछ तो सोची अब कहते हो।

लेकिन कहनेवाले अपनी मान-मर्यादा का ध्यान नहीं रख सके –

रिश्ते के कच्चे धागों की / सब मर्यादाएँ टूट गयीं

फलत:,

नींद हमें आती नहीं है / काँटे  सा लगता बिस्तर

जीवन एक जाल रेशमी / हम हैं उसमें फँसे हुए

नेक राह पकड़ी थी मैंने / किन्तु जमाना नेक नहीं

‘बदनाम गली’ इस संग्रह की अनूठी रचना है। इसे पढ़ते समय गुरु दत्त की प्यासा और ‘जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहाँ है’ याद आती है। कुछ पंक्तियाँ देखें-

रिश्ता है इस गली से भाई तख्तो-ताज का / वैसे ही जैसे रिश्ता हो चिड़ियों से बाज का

 जिनकी हो जेब गर्म वो सरकार हैं यहाँ / सज्जन चरित्रवान नोचते हैं बोटियाँ

वो हाथ में गजरा लपेटे आ रहे हैं जो / कपड़े की तीन मिलों को चला रहे हैं वो

रेखा उलाँघती यहाँ सीता की बेटियाँ / सलमा खड़ी यहाँ पे कमाती है रोटियाँ

इनको भी माता-बहनों सा सत्कार चाहिए / इनको भी प्रजातन्त्र के अधिकार चाहिए

अपने दर्द में भी औरों की फ़िक्र करने का माद्दा कितनों में होता है। पूनम शेरदिल थी, उसमें था यह माद्दा। मिलन और विरह दोनों स्मृतियाँ उसको ताकत देती थीं –

तेरी यादे तड़पाती हैं, और हमें हैं तरसातीं

हुई है हालत मेरी ऐसी जैसे मेंढक बरसाती

आदर्श को जलते देख रही / बच्चों को छलते देख रही

मधुर मिलान के स्वप्न सुनहरे / टूट गए मोती मानिंद

अब उनकी बोझिल यादें हैं / हल्के-फुल्के लम्हात नहीं

ये यादें हमेशा बोझिल नहीं कभी-कभी खुशनुमा भी होती हैं –

एक तहजीब बदन की होती है सुनो / उसको पावन ऋचाओं सा पढ़कर गुनो

तन की पुस्तक के पृष्ठ भी खोले नहीं / रात भर एक-दूसरे से बोले नहीं

याद करें राजेंद्र यादव का उपन्यास ‘सारा आकाश’।

एक दूजे में मन यूँ समाहित हुआ / झूठे अर्पण की हमको जरूरत नहीं

जीवन के विविध प्रसगों को कम से कम शब्दों में बयां  करने की कला कोई पूनम से सीखे।

उठो! साथ दो, हाथ में हाथ दो, चाँदनी की तरह जगमगाऊँगी मैं

बिन ही भाँवर कुँवारी सुहागन हुई, गीत को अपनी चूनर बनाऊँगी मैं

देह की देहरी धन्य हो जाएगी / तुम अधर से अधर भर मिलाते रहो

लाल हरे नीले पिले सब रंग प्यार में घोलकर / मन के द्वारे बन्दनवारे बाँधे मैंने हँस-हँसकर

आँख की रूप पर मेहरबानी हुई / प्यार की आज मैं राजधानी हुई

राग सीने में है, राग होंठों पे है / ये बदन ही मेरा बाँसुरी हो गया

साँस-साँस होगी चंदन वन / बाँहों में जब होंगे साजन

गीत-यात्री पूनम, जीवन भर अपने प्रिय को जीती रही और पलक झपकते ही महामिलन के लिए प्रस्थान कर गयी –

पल भर की पहचान / उम्र भर की पीड़ा का दान बन गई

सुख से अधिक यंत्रणा /  मिलती है अंतर के महामिलन में

अनूठी कहन, मौलिक चिंतन, लयबद्ध गीत-ग़ज़ल, गुनगुनाते-गुनगुनाते बाँसुरी  सामर्थ्य रखनेवाली पूनम जैसी शख्सियत जाकर भी नहीं जाती। वह जिन्दा रहती है क़यामत  मुरीदों, चाहनेवालों, कद्रदानों के दिल में। पूनम का गीत स्पर्श जब-जब हाथों में आएगा तब- तब पूनम के कलाम के साथ-साथ पूनम की यादों को ताज़ा कर जाएगा। गीतों में  अपने मखमली स्पर्श से नए- नए भरने में समर्थ पूनम फिर-फिर आएगी हिंदी के माथे पर नयी बिंदी लिए।हम पहचान तो नहीं सकते पर वह है यहीं कहीं, हमारे बिलकुल निकट नयी काया में। उसके जीवट  के आगे समय को भी नतमस्तक होना ही होगा।

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈