श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है  “लघुकथा – माता का भंडारा।  यह एक प्रेरणास्पद एवं अनुकरणीय कथानक है। इस महामारी में ऐसे प्रसंगों पर संवेदनशील निर्णय जरूरतमंदों के लिए सहायक ही नहीं होते अपितु समाज के सामने एक अनुकरणीय उदहारण भी होते हैं।  इस सार्थक रचना के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 86 ☆

? लघुकथा – माता का भंडारा ?

 

सिटी से दूर छोटी सी सुंदर कालोनी।

सभी लोग मिल जुल कर रहते थे होली हो, दीवाली हो, जगराता हो, बड़ा दिन हो, ईद हो या फिर कोई भी त्यौहार सभी मिलजुल कर मनाते थे।

अभी नवरात्रि का पर्व धूम-धाम से चल रहा था। चारों तरफ माता रानी के जयकारे लगाये जा रहे थे। विषम परिस्थितियो के कारण सभी बहुत उदास और घबराए हुए थे।

सारे विश्व में फैला हुआ कोरोना का भयानक मंजर से सभी सिहरे हुए थे। बस एक ही प्रार्थना दुआ आ रही थी कि किसी तरह कोरोना महामारी से रक्षा करो माता।

कालोनी में हर साल माता का भंडारा होता था। सभी बातें कर रहे थे कि इस बार क्या करें??? सभी का मन उदास था। मन भी नहीं मान रहा था कि भंडारा कराएं या नही कराए और कराए तो कोरोना का डर सता रहा था।

स्थिति को देखते हुए भंडारा नहीं करने का निर्णय लिया गया। यह आपस में बातचीत हो रही थी और यही चर्चा का विषय बना हुआ था।

एक फल वाला दादा कालोनी में रोज फल  लेकर आता था। बेचते-बेचते वह कालोनी में सभी को पहचानने लग गया था। कालोनी वाले भी वर्षों से उसको जान पहचान रहे थे।

उसके घर में उसकी पत्नी थी। बेटी को विवाह कर चुका था। लाकडाउन की वजह से वह दो चार दिनों से फेरी नहीं लगा रहा था। कालोनी में बातचीत हो रही थी कि दादा फल लेकर नहीं आ रहा हैं। कालोनी से थोड़ी दूर में वह अपनी पत्नी के साथ झुग्गी झोपड़ी बनाकर रहता था।

यह चर्चा काचल ही रही थी कि दादा ठेले में दो दर्जन केला लेकर आते हुए दिखाई दिया।

वह बहुत परेशान दिख रहा था। पूछने पर बताया कि… कहीं से कोई पैसे का इंतजाम नहीं हो पा रहा है और बिक्री भी नहीं हो रही है घर में कोई नहीं है और पत्नी बीमार चल रही है। कह कर वह फूट- फूट कर रोने लगा।

पुरी कालोनी इकट्ठी हो गई। देखते-देखते सभी लोग वहां पर खड़े हो गए और सब ने विचार किया। बातों ही बातों में उसका ठेला आटे का पैकेट दाल चांवल सब्जी और जरुरत के सभी सामानों से भर गया। ढेर सारे पैकेट्स से उसका ठेला भर चुका था।

फल वाले दादा की आंखों से आंसू बह निकले ।

आज तक ठेले पर फल बेचते आया था। आज पूरा सामान देख कर खुश हो गया और रोते-हंसते हुए बोला माता का भंडारा ऐसा भी होता है मैंने सोचा नहीं था।

आप सब लोग जुग-जुग जिए और कोरोना कभी आप लोग को छू भी न पाए।

कालोनी में एक डॉक्टर भी थे। उन्होंने कहा चलो मैं तुम्हारे साथ चलता हूँ। फिर डॉक्टर साहब ने दादा की पत्नि की सेहत को देख कर उसे जरुरत की दवाई और कुछ विटामिन की शीशी देकर कहा.. तुम जरुरत पड़ने पर और भी सहायता ले लेना।

कालोनी वाले भी बहुत प्रसन्न हुए और सभी समझ चुके कि हमने माता का भंडारा बहुत अच्छे से करवा लिया। सभी खुश थे कि एक जरुरतमंद को हम सब ने साथ आकर सहायता कर माता का भंडारा करवा दिया और हमारा त्यौहार भी मन गया।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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