श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’
( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “सोचकर देखिए”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।
आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
क्या जिसने पौधा लगाया वही उसका स्वामी होगा , वही वृक्ष के सारे फलों का उपयोग करेगा? जब ऐसा नहीं होता तो हम ये अपेक्षा क्यों करते हैं कि ये कार्य मैंने किया अब इस पर मेरा ही अधिकार है। वास्तविकता तो यही है कि जब तक आप सजग होकर कार्य करते रहेंगे तभी तक आपका मूल्य है जैसे ही कोई और सक्रिय व्यक्ति आपकी जगह लेगा तब उसका अधिकारी वो कहलायेगा।
प्रकृति के सभी क्रियाकलापों को देखें तो पाते हैं कि सूर्य , चन्द्रमा, धरती, ग्रह नक्षत्र, जीव -जंतु, नदी, सागर,पर्वत, वृक्ष ये सब हमेशा कुछ न कुछ देते रहते हैं और बदले में कुछ भी नहीं चाहते तो हम मनुष्य ही क्यों केवल अपेक्षाओं का पुतला बन हमेशा माँगते ही रहते हैं यहाँ तक कि परमशक्ति के आगे भी निःस्वार्थ भाव से शीश नहीं झुका पाते वहाँ भी भगवान ये दे दो वो दे दो की ही माला जपते रहते हैं।
हर गलती का ठीकरा दूसरों पर फोड़ देना बहुत सरल होता है पर अपना मूल्यांकन करना जरा दुश्कर होने लगता है।
कामयाबी को शब्दों में बाँधना बहुत कठिन है। केवल आर्थिक रूप से शीर्ष पर स्थापित होने से नाम और पहचान सहजता से मिलती है किंतु लोगों के हृदय में सम्मान बनाने हेतु निःस्वार्थ भाव से कार्य करना पड़ता है।
जब आप मैं से दूर हो समाज के लिए उपयोगी हो जाते हैं तभी अंतरात्मा प्रसन्न हो मनोवांछित फल देने लग जाती है। तब ये खुशी चेहरे की आभा बन जनमानस के लिए एक मार्गदर्शक व्यक्तित्व का निर्माण करती है।
हार्दिक बधाई, स्वागत है। ये लिखते- लिखते मानों साँसों की डोरी थम सी गयी हो। अपने क्रियाकलापों का अवलोकन करते हुए स्वतः विचार अवश्य करना चाहिए। समय के साथ जोड़ना – घटाना चलता ही रहेगा किन्तु अपना सफर कहाँ से कहाँ तक तय किया गया उसे याद कर आज कहाँ तक जा पहुँचे हैं ये भी सोचकर जिन्होंने देखा वो कामयाबी की माला पहने नज़र आए।
पतझड़ तो सबके जीवन में आते हैं, शाख से टूटे हुए पत्तों को कोई जोड़ नहीं सकता। नई कोंपले निकलेंगी वे ही वृक्ष की रौनक बढ़ाते हुए उसे पुष्पित और पल्लवित करेंगी। अब समय है कि इन बदलावों को सहजता से स्वीकार कर अपने साथ- साथ लोगों को भी बढ़ाएँ।
© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’
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