हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 97 ☆ व्यंग्य – अपनी किताब पढ़वाने का हुनर ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘अपनी किताब पढ़वाने का हुनर‘। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 97 ☆

☆ व्यंग्य – अपनी किताब पढ़वाने का हुनर

सुबह आठ बजे दरवाज़े की घंटी बजी। आश्चर्य हुआ सुबह सुबह कौन आ गया। दरवाज़ा खोला तो सामने बल्लू था। चेहरे से खुशी फूटी पड़ रही थी। सारे दाँत बाहर थे। हाथ पीछे किये था, जैसे कुछ छिपा रहा हो।

दरवाज़ा खुलते ही बोला, ‘बूझो तो, मैं क्या लाया हूँ?’

मैने कहा, ‘मिठाई का डिब्बा लाया है क्या? प्रोमोशन हुआ है?’

वह मुँह बनाकर बोला, ‘तू सब दिन भोजन-भट्ट ही बना रहेगा। खाने-पीने के अलावा भी दुनिया में बहुत कुछ है।’

मैं झेंपा। वह हाथ सामने लाकर बोला, ‘यह देखो।’

मैंने देखा उसके हाथ में किताब थी। कवर पर बड़े अक्षरों में छपा था ‘बेवफा सनम’, और उसके नीचे लेखक का नाम ‘बलराम वर्मा’।

मैंने झूठी खुशी ज़ाहिर की। कहा, ‘अरे वाह, तेरी किताब है?ग़ज़ब है। तू तो अब बुद्धिजीवियों की जमात में शामिल हो गया।’

वह गर्व से बोला, ‘उपन्यास है। यह तुम्हारी कापी है। पढ़ कर बताना है। ढाई सौ पेज का है। रोज पचास पेज पढ़ोगे तो आराम से चार- छः दिन में खतम हो जाएगा। वैसे हो सकता है कि तुम्हें इतना पसन्द आये कि एक रात में ही खतम हो जाए।’

मैंने झूठा उत्साह दिखाते हुए कहा, ‘ज़रूर ज़रूर, तेरी किताब नहीं पढ़ूँगा तो किसकी पढ़ूँगा?दोस्ती किस दिन के लिए है?’

वह किताब पकड़ाकर चला गया। अगले दिन रात को नौ बजे उसका फोन आ गया। बोला, ‘वह जो उपन्यास की भूमिका में ‘घायल’ जी ने मेरी किताब को सदी के सर्वश्रेष्ठ उपन्यासों में से एक बताया है,वह तूने पढ़ा है?’

मैंने घबराकर झूठ बोला, ‘बस पढ़ ही रहा हूँ, गुरू। तकिये की बगल में रखी है।’

वह व्यंग्य से बोला, ‘मुझे पता था तूने अभी किताब खोली भी नहीं होगी।’

मैंने कहा, ‘बस शुरू कर रहा हूँ तो खतम करके ही छोड़ूँगा।’

किताब की भूमिका पढ़ी। उसमें ‘घायल’ जी ने बल्लू को चने के झाड़ पर चढ़ा दिया था। फिर पहला चैप्टर पढ़ा। उसमें घटनाओं और भाषा का उलझाव ऐसा था कि पढ़ते पढ़ते दिमाग सुन्न हो गया। पता नहीं कब नींद आ गयी।

दो दिन बाद फिर उसका फोन आया। बोला, ‘वह जो लवली अपने लवर को थप्पड़ मारती है वह तुझे ठीक लगा या नहीं?’

मैंने घबराकर पूछा, ‘यह कौन से चैप्टर में है गुरू?’

वह व्यंग्य से हँसकर बोला, ‘तीसरे चैप्टर में। मुझे मालूम था तू अभी पहले चैप्टर में ही अटका होगा। मेरी किताब को छोड़कर तुझे बाकी बहुत सारे काम हैं।’

मैंने शर्मिन्दा होकर कहा, ‘बस स्पीड बढ़ा रहा हूँ, गुरू। जल्दी पढ़ डालूँगा।’

दो दिन बाद फिर उसका फोन। बोला, ‘वह जो लवली अपने लवर से झगड़ा करके सहेली के घर चली जाती है,वह तुझे ठीक लगा या नहीं?’

मैं फिर घबराया, पूछा, ‘यह कौन सा चैप्टर है गुरू?’

वह फिर व्यंग्य से हँसा,बोला, ‘छठवाँ। मुझे पता था कि तू कछुए की रफ्तार से चल रहा है। बेकार ही तुझे किताब दी।’

मैंने फिर उसे भरोसा दिलाया, कहा, ‘बस दौड़ लगा रहा हूँ,भैया। दो तीन दिन में पार हो जाऊँगा।’

अगले दिन फिर उसका फोन— ‘वो जो लवली अपने पुराने प्रेमी के पास पहुँच जाती है वह सही लगा?’

मैंने कातर स्वर में पूछा, ‘यह कौन से चैप्टर की बात कर रहा है?

वह बोला, ‘नवाँ। उसके बाद तीन चैप्टर और बाकी हैं। तू इसी तरह घसिटता रहेगा तो महीने भर में भी पूरा नहीं होगा।’

दो दिन बाद फिर उसका फोन आ गया। उसके कुछ बोलने से पहले ही मैंने कहा, ‘मैंने तुम्हारी किताब पूरी पढ़ ली है, भैया, लेकिन अभी तीन चार दिन उसकी बात मत करना। अभी तबियत ठीक नहीं है। दिमाग काम नहीं कर रहा है। तबियत ठीक होने पर मैं खुद बात करूँगा।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈