(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का एक समसामयिक एवं विचारणीय व्यंग्य – प्यास लगे तभी कुंआ खोदने का युग। इस विचारणीय रचना के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 104☆
व्यंग्य – प्यास लगे तभी कुंआ खोदने का युग
जमाना दो मिनट में मैगी तैयार, वाला है. बच्चे को भूख लगने पर दो मिनट में मैगी बनाकर माँ फटाफट खिला देती हैं. घर पर मैगी न हो तो मोबाईल पर जोमैटो, स्विगी या डोमिनोज का एप तो है न, इधर आर्डर प्लेस हुआ और टाईम लिमिट में डिलीवरी पक्की है.
दादी का जमाना था जब चूल्हे की आग कभी बुझाई ही नहीं जाती थी, राख में अंगारे छोड़ दिये जाते थे. जाने कब वक्त बेवक्त कोई पाहुना आ जाये. मुडेंर पर कौये की कांव कांव होती ही रहती थी, जब तब अतिथि पधारते ही रहते थे. नाश्ते के समय कोई खास आ जाये तो तुरत फुरत गरम भजिये तले जाते थे, और यदि भोजन के समय मेहमान आ जायें तो गरमागरम पूड़ियां और आलू की सब्जी, पापड़ का मीनू लगफभग तय होता था. रेडी मेड मेहमान नवाजी के लिये दादी के कनस्तर में पपड़ियां, खुरमें, शक्कर पाग, नमकीन वगैरह भरे ही रहा करते थे. मतलब वह युग पूर्व तैयारी का था. दादा जी की समय पूर्व तैयारी का आलम यह था कि ट्रेन आने के आधा घण्टे पहले से प्लेटफार्म पर पहुंच कर इंतजार किया जाता था. किसी आयोजन में पहुंचना हो तो निर्धारित समय से बहुत पहले से आयोजन स्थल पर पहुंच मुख्य अतिथि की प्रतीक्षा किये जाने की परम्परा थी.
पर अब सब बदल चुका है. अब कुएं का महत्व संस्कृति की रक्षा में विवाह एवं जन्म संस्कार के समय पूजन तक सिमट कर रह गया है. धार्मिक अनुष्ठान के समय कुंआ ढ़ूंढ़ने की नौबत आने लगी है, क्योंकि अब पेय जल नल से सीधे किचन में चला आता है. कुंये के अभाव में महिलाएं, नल का पूजन कर सांकेतिक रूप से संस्कारो को बचाये हुये हैं. सर पर मटकी पर मटकी चढ़ायें पनहारिनें खोजे नही मिलती, इससे रचनाकारों को साहित्य हेतु नये विषय ढ़ूंढ़ने पड़ रहे हैं. सच पूछा जाये तो मुहावरों की भाषा में अब हमने प्यास लगे तभी कुंआ खोदने का युग निर्मित कर लिया है. प्यास लगते ही बाटल बंद कुंआ खरीद कर शुद्ध मिनरल वाटर पी लिया जाता है. प्यास के लिये पानी की सुराही लिये चलने का युग आउट आफ डेट हो चुका अब तो वाटर बाटल लटकाये घूमना भी बोझ प्रतीत होता है.
इन परिस्थितियों में बच्चे के जन्मोत्सव पर प्रकृति प्रदत्त आक्सीजन का कर्ज चुकाने के लिये वृक्षारोपण मेरे जैसे दकियानूसी कथित आदर्शवादी बुद्धिजीवीयों का शगल मात्र बन कर रह गया है, जो ये सोचते हैं कि जब हम बाप दादा के लगाये वृक्षो के फल खाते हैं तो आने वाली पढ़ीयों के लिये फलदार वृक्ष लगाना हमारा कर्तव्य है. इस चट मंगनी पट ब्याह और फट बच्चा और झट तलाक वाली पीढ़ी को कर्तव्यो पर नही अधिकारो पर भरोसा है. कोरोना सांसो से सांसो तक पहुंचता है, सबको पता है, पर कुंभ की ठसाठस भीड़ पर सवाल उठाओ तो मौलाना साहब की मैयत की भीड़ दिखा दी जाती है. चुनाव की रैली पर रोक लगाना चाहो तो पहले खेलों का खेला रोकने को कहा जाता है. खेल रोकना चाहो तो राजनीती रोकने नहीं देती. राजनीति विज्ञापन पर भरोसा करती है. राजनीति को मालूम है कि दुनियां ग्लोबल है, जरूरत पड़ेगी तो आक्सीजन, वैक्सीन, दवायें सब आ ही जायेंगी, खरीद कर, सहानुभूति में या मजबूरी में ही सही. और तब तक लाख दो लाख काल कवलित हो भी गये तो क्या हुआ संवेदना व्यक्त करने के काम आयेंगे. चिताओ की आग दुनियां के दूसरे छोर के अखबारों की हेड लाइन्स बनेंगी तो क्या हुआ विपक्षियो पर लांछन लगाने के लिये इतना तो जरूरी है. राजकोष का अकूत धन आखिर होता किसलिये है. राजा की तरह दोनो हाथों से बेतरतीब लुटाकर जहां जिसको जैसा मन में आया, संवेदनाओ के सौदे कर लिये जायेंगे.
आपदा की पूर्व नियोजित तैयारी का युग आउट डेटेड है, भला कोई कैसे अनुमान लगा सकता है कि कब, कहाँ, कितना, कैसा संकट आयेगा, इसलिये जिसे जो करना है करने दो, हम प्रजातंत्र हैं. हमें पूर्ण स्वतंत्रता होनी ही चाहिये. खुद जो मन आये करो, नेतृत्व को बोल्ड होना ही चाहिये. जब प्यास लगेगी, कुंआ खोद ही लेंगें. बहुत ताकतवर, संसाधन संपन्न, ग्लोबल हो चुके हैं हम. कुंआ खोदने में जो समय लगेगा उसके लिये न्यायालय की चेतावनी चलेगी, हम लोकतांत्रिक राष्ट्र हैं, और न्यायालयों का बड़ा सम्मान होता है जनतंत्र में. इसलिये अस्पतालों की अव्यवस्था, आक्सीजन की कमी, दवाओ की अफरा तफरी, कोरोना की दहशत पर क्षोभ उचित नही है. आपदा में अवसर तलाशने वाले कालाबाजारियों, जमाखोरों, नक्कालो से पूरी हमदर्दी रखिये जिन्होंने अनाप शनाप कीमत पर ही सही जिंदगियों को चंद सांसे तो दीं ही हैं.
© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
मो ७०००३७५७९८
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈