हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 98 ☆ व्यंग्य – टैक्नॉलॉजी के पीड़ित ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘ टैक्नॉलॉजी के पीड़ित‘। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 98 ☆

☆ व्यंग्य –  टैक्नॉलॉजी के पीड़ित

अफसर, कर्मचारी, चपरासी सब भारी दुखी हैं। यह तो बड़ी धोखाधड़ी हो गयी,हिटिंग बिलो द बैल्ट। आये, मुस्करा मुस्करा कर नोट दिये, और बिना जाने फोटू उतारकर चले गये, जैसे कोई चतुर चोर आँख से अंजन या दाँत से मंजन चुरा ले जाए। अब दो दिन बाद टीवी पर नोट समेटने के फोटू उतर रहे हैं, जैसे कपड़े उतर रहे हों। हद हो गयी भई, ऐसे ही चला तो आदमी का आदमी पर से भरोसा उठ जाएगा। ऐसे शत्रु-समय में रिश्वत लेने का जोखिम कौन उठाएगा, और रिश्वत बन्द हो गयी तो काम का क्या होगा? बिना ‘इन्सेन्टिव’ के कौन काम करेगा? सब के बाल-बच्चे हैं।

पूरे दफ्तर में अफरातफरी और हड़कम्प है। जिनके फोटू नहीं उतरे वे दौड़कर नुक्कड़ के मन्दिर में नारियल चढ़ा आये हैं। अच्छा हुआ कि उस दिन पत्नी की टाँग टूटने के कारण छुट्टी पर थे वर्ना—-। वाइफ के फ्रैक्चर्ड फुट की जय। भगवान ने बचा लिया। जय जय जय हनुमान गुसाईं।

एक अफसर टीवी पर भोलेपन से कहते हैं, ‘हमने तो उधार दिये थे, वही वापस लिये थे।’

चैनल का प्रतिनिधि पूछता है, ‘किस से वापस लिये थे?’

जवाब मिलता है, ‘अब यह तो चेहरा देख कर ही बता सकते हैं। आप चेहरा दिखा दीजिए तो हम बता देंगे।’

प्रतिनिधि पूछता है, ‘आप क्या दफ्तर में उधार लेने-देने का काम करते हैं?’

बड़ा मासूम सा जवाब मिलता है, ‘नईं जी। कभी कभी देना पड़ता है। किसी पहचान वाले को डिपार्टमेंट में जमा करने के लिए पैसे कम पड़ जाएँ तो वह किससे माँगेगा? यह तो इंसानियत का तकाज़ा है। आख़िर हम भी इंसान हैं जी।’

पूरे डिपार्टमेंट में भुनभुन मची है। जहाँ देखो गोल बनाकर लोग फुसफुसा रहे हैं, जो फँसे हैं वे भी, और जो नहीं फँसे हैं वे भी। भई हद हो गयी। पानी सर के ऊपर चढ़ गया। यानी कि प्राइवेसी नाम की चीज़ रह ही नहीं गयी। कल के दिन पता चलेगा कि हमारे बाथरूम और बेडरूम के भीतर के फोटू भी उतर गये। दिस इज़ टू मच। मीडिया मस्ट बी केप्ट विदिन लिमिट्स।

अफसरों और कर्मचारियों की जो बीवियाँ रोज़ की ऊपरी कमाई से साड़ियाँ और ज़ेवर खरीदती रही हैं, वे भारी कुपित हैं।’झाड़ू मारो ऐसे मीडिया को। मेरे घर आयें तो बताऊँ। सारा फोटू उतारना भूल जाएंगे। दूसरे का सुख नहीं देखा जावै ना!बड़े दूध के धुले बने फिरते हैं।’

एक छोटे अफसर आला अफसर के सामने रुँधे गले से कह आये हैं—-‘सर, ऐसइ होगा तो हम तो अपने बाल-बच्चों को आपके चरनों में पटक जाएंगे। ऐसी हालत में कोरी तनखाह में घर का खरचा कैसे चलाएंगे?’

बड़े साहब ने पूरे डिपार्टमेंट की मीटिंग बुलायी है। जो जो फँसे हैं वे सिर झुकाये बैठे हैं। जो नहीं फँस पाये वे गर्व से सब तरफ गर्दन घुमा रहे हैं। साहब थोड़ी देर तक ज़मीन का मुलाहिज़ा करने के बाद चिन्तित मुद्रा में सिर उठाते हैं, कहते हैं, ‘यह दिन डिपार्टमेंट के लिए शर्म का दिन है। आप लोगों ने हमारी नाक कटा दी।’

आरोपी नज़र उठाकर साहब के चेहरे की तरफ देखते हैं। नाक तो बिलकुल साबित है। साहब कहते हैं, ‘मुझे इस बात का ज़्यादा अफसोस नहीं है कि आप लोगों ने गलत काम किया। ज़्यादा अफसोस इस बात का है कि आप गलत काम करते पकड़े गये और आपने फोटो भी खिंचने दिया। अब पूरे मुल्क में हमारी थू थू हो रही है।’

कुछ देर सन्नाटा। झुके हुए सिर और झुक गये हैं। जो छोटे साहब अपने बाल-बच्चों को बड़े साहब के चरनों में पटकने की कह आये थे वे धीरे धीरे उठ कर खड़े हो जाते हैं। कहते हैं, ‘सर, हम इस बात को लेकर बहुत लज्जित हैं कि हम पैसा लेते फोटू में आ गये। लेकिन मेरा निवेदन यह है कि इस के लिए आज की टैकनालॉजी जिम्मेदार है। आज टैकनालॉजी इतनी बढ़ गयी है कि आदमी को पता ही नहीं चलता और उसकी फोटू उतर जाती है। इसलिए जो कुछ हुआ उसमें कसूर हमारा नहीं, टैकनालॉजी का है। हम करप्ट नहीं हैं, नयी टैकनालॉजी के सताये हुए हैं।’

सब फँसे हुए लोग यह तर्क सुनकर प्रसन्न हो जाते हैं। क्या बात कही पट्ठे ने! अपराध- बोध और शर्म तत्काल आधी हो जाती है।

साहब सहमति में सिर हिलाते हैं, कहते हैं, ‘यू आर राइट। द होल प्राब्लम इज़ कि आज टैक्नॉलॉजी बहुत तेजी से बढ़ रही है और हम उसके साथ कदम मिलाकर नहीं चल पा रहे हैं। इसीलिए सारी गड़बड़ियाँ पैदा होती हैं। हमें आज की तब्दीलियों के हिसाब से अपने को एडजस्ट करना चाहिए। इसी को मैनेजमेंट की ज़बान में मैनेजमेंट ऑफ चेंज कहते हैं। लेकिन आपकी गलती यह है कि यू वर नॉट एनफ केयरफुल। आप सावधान होते तो यह घटना न घटती और डिपार्टमेंट को जिल्लत न उठानी पड़ती।’

छोटे साहब कहते हैं, ‘हम अपनी गलती मानते हैं और आपको विश्वास दिलाते हैं कि आगे हम इतनी सावधानी से काम करेंगे कि कोई हमारी फोटू न उतार सके। हम टैकनालॉजी की चुनौती को स्वीकार करते हैं। हम भी देखेंगे कि इस लड़ाई में टैकनालॉजी जीतती है या आदमी जीतता है। फिलहाल आपसे निवेदन है कि स्थिति को सुधारने की दिशा में तत्काल यह व्यवस्था कर दी जाए कि फालतू लोग डिपार्टमेंट में प्रवेश न कर सकें। यह बहुत जरूरी है।’

साहब उठते उठते कहते हैं, ‘ठीक है, मैं इन्तज़ाम करता हूँ। अब आप लोग अपने काम में लग जाएं।’

सब अधिकारी-कर्मचारी निश्चिंत और प्रसन्न मन से उठकर अपनी अपनी सीट पर पहुँचते हैं और निष्ठापूर्वक अपने काम में लग जाते हैं।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈