हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 64 ☆ राहत की चाहत ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “राहत की चाहत”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 64 – राहत की चाहत

मनमौजी लाल ने अपनी इमारत की नींव खोद कर सारे पत्थर एक- एक कर फेंक दिए। सुनते हैं कि उन्होंने पहले ही चार पिलर खड़े कर लिए थे। पर जल्दी ही पिलर आँखों में किरकिरी बन चुभने लगे। तभी उनकी नयी सलाहकार ने कहा  कि आजकल तो चार लोग काँधे के लिए भी नहीं चाहिए, अब सब आधुनिक तरीके से हो रहा है तो एक ही विश्वास पात्र बचाकर रखिए बाकी की छुट्टी करें। बात उनको सोलह आने सच लगी। भले ही वे अपनी पत्नी को मूर्ख समझते हों, किंतु बाहरी महिलाओं की पूछ परख करने में उन्हें महारत हासिल है। सबको सम्मान देते हुए विभिन्न पदों पर सुशोभित करते हुए चले जा रहे हैं।

मजे की बात ये है कि जब वे सीढ़ी चढ़ते, तो स्वयं  चढ़ जाते, पर ऊपर जाते ही सीढ़ी तोड़ देते, जिससे वहाँ कोई न पहुँच सके। जहाँ जो मिलता, उसी से काम चलाकर नई मंजिल का सफर तय करना उनकी आदत बन चुकी थी। इधर टूटा हुआ समान बटोरने वाले कबाड़ी उसी में जश्न मनाते हुए प्रसन्न होते। वैसे भी तोड़ – फोड़, जोड़ – तोड़ ये सब देखने वाले को भी आनन्दित करते ही हैं। असली कलाकारी तो ऐसी ही परिस्थितियों में देखने को मिलती है। ये क्रम अनवरत चलता जा रहा था तभी वहाँ सुखी लाल जी पहुँच गए  और राहत की खोज बीन करने लगे। सबने बहुत समझाया कि यहाँ कुछ नहीं मिलेगा। आजकल सब कुछ डिजिटल है, फेसबुक और व्हाट्सएप पर ही पढ़ें- पढ़ाएँ। ज्यादा हो तो गूगल की शरण में पहुँचिए। यहाँ आए दिन तफरी करने मत आया करिए। यहाँ हम लोग रिमूवल रूपी अस्त्र लेकर बैठे हैं ज्यादा होशियारी आपको भारी पड़ेगी। जो मन हों लिखें पर पूछने आए तो छुट्टी निश्चित मिलेगी।

हम तो मनोरंजन हेतु लिखने- पढ़ने में जुटे हुए हैं। ज्यादा से ज्यादा स्वान्तः सुखाय तक ही हमारी पहुँच है। सो मूक बनकर देखते रहते हैं। हालांकि इस पंक्ति की याद आते ही मन विचलित जरूर होता है –

समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याघ्र

जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनके भी अपराध।

राहत की खोजबीन में लगा हुआ व्यक्ति इधर से उधर डिजिटल प्लेटफॉर्म पर भटक रहा है, पर हर जगह पॉलिटिक्स का कब्जा है। कोई किसी को आगे बढ़ने ही नहीं देना चाहता। सब मेरा हो इस सोच ने व्यक्तिवाद को बढ़ावा दिया है।

अब ये आप पर निर्भर है कि राहत आपको  कैसे और कहाँ मिलेगी।

चाहत सबकी बढ़ रही, राहत ढूंढ़े रोज।

बार- बार आहत हुए, रुकी न फिर भी खोज।।

बड़ी बोली वे बोलें।

राज अपने ही खोलें।।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈