(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का एक ऐतिहासिक जानकारी से ओतप्रोत आलेख – जल-जंगल -जमीन के अधिकार के आदि प्रवक्ता बिरसा मुण्डा। इस ऐतिहासिक रचना के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 107 ☆
जल-जंगल-जमीन के अधिकार के आदि प्रवक्ता बिरसा मुण्डा
आज रांची झारखंड की राजधानी है. बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवम्बर 1875 को रांची जिले के उलिहातु गांव में हुआ था. यह तब की बात है जब ईसाई मिशनरियां अंग्रेजी फौज के पहुंचने से पहले ही ईसाइयत के प्रचार के लिये गहन तम भीतरी क्षेत्रो में पहुंच जाया करती थीं. वे गरीबों, वनवासियों की चिकित्सकीय व शिक्षा में मदद करके उनका भरोसा जीत लेती थीं. और फिर धर्मान्तरण का दौर शुरू करती थीं. बिरसा मुंडा भी शिक्षा में तेज थे. उनके पिता सुगना मुंडा से लोगों ने कहा कि इसको जर्मन मिशनरी के स्कूल में पढ़ाओ, लेकिन मिशनरीज के स्कूल में पढ़ने की शर्त हुआ करती थी, पहले आपको ईसाई धर्म अपनाना पड़ेगा. बिरसा का भी नाम बदलकर बिरसा डेविड कर दिया गया.
1894 में छोटा नागपुर क्षेत्र में जहां बिरसा रहते थे, अकाल पड़ा, लोग हताश और परेशान थे. बिरसा को अंग्रेजों के धर्म परिवर्तन के अनैतिक स्वार्थी व्यवहार से चिढ़ हो चली थी. अकाल के दौरान बिरसा ने पूरे जी जान से अकाल ग्रस्त लोगों की अपने तौर पर मदद की. जो लोग बीमार थे, उनका अंधविश्वास दूर करते हुये उनका इलाज करवाया. बिरसा का ये स्नेह और समर्पण देखकर लोग उनके अनुयायी बनते गए. सभी वनवासियों के लिए वो धरती आबा हो गए, यानी धरती के पिता.
अंग्रेजों ने 1882 में फॉरेस्ट एक्ट लागू किया था जिस से सारे जंगलवासी परेशान हो गए थे, उनकी सामूहिक खेती की जमीनों को दलालों, जमींदारों को बांट दिया गया था. बिरसा ने इसके खिलाफ ‘उलगूलान’ का नारा दिया. उलगूलान यानी जल, जंगल, जमीन के अपने अधिकारों के लिए लड़ाई. बिरसा ने अंग्रेजों के खिलाफ एक और नारा दिया, ‘अबुआ दिशुम अबुआ राज’, यानी अपना देश अपना राज. करीब 4 साल तक बिरसा मुंडा की अगुआई में जंगलवासियों ने कई बार अंग्रेजों को धूल चटाई. अंग्रेजी हुक्मराम परेशान हो गए, उस दुर्गम इलाके में बिरसा के गुरिल्ला युद्ध का वो तोड़ नहीं ढूंढ पा रहे थे. लेकिन भारत जब जब हारा है, भितरघात और अपने ही किसी की लालच से, बिरसा के सर पर अंग्रेजो ने बड़ा इनाम रख दिया. किसी गांव वाले ने बिरसा का सही पता अंग्रेजों तक पहुंचा दिया. जनवरी १८९० में गांव के पास ही डोमबाड़ी पहाड़ी पर बिरसा को घेर लिया गया, फिर भी 1 महीने तक जंग चलती रही, सैकड़ों लाशें बिरसा के सामने उनको बचाते हुए बिछ गईं, आखिरकार 3 मार्च वो भी गिरफ्तार कर लिए गए. ट्रायल के दौरान ही रांची जेल में उनकी मौत हो गई.
लेकिन बिरसा की मौत ने न जाने कितनों के अंदर क्रांति की ज्वाला जगा दी. और अनेक नये क्रांतिकारी बन गये. राष्ट्र ने उनके योगदान को पहचाना है. आज भी वनांचल में बिरसा मुंडा को लोग भगवान की तरह पूजते हैं. उनके नाम पर न जाने कितने संस्थानों और योजनाओं के नाम हैं, और न जाने कितनी ही भाषाओं में उनके ऊपर फिल्में बन चुकी हैं. पक्ष विपक्ष की कई सरकारों ने जल जंगल और जमीन के उनके मूल विचार पर कितनी ही योजनायें चला रखी हैं.उनकी जयंती पर इस आदिवासी गुदड़ी के लाल को शत शत नमन.
© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈