हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 46 ☆ राष्ट्रभाषा हिन्दी को संपर्क भाषा के रूप में स्वीकारें ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका  एक अत्यंत ज्ञानवर्धक, ऐतिहासिक एवं आध्यात्मिक आलेख  “राष्ट्रभाषा हिन्दी को संपर्क भाषा के रूप में स्वीकारें”.)

☆ किसलय की कलम से # 46 ☆

☆ राष्ट्रभाषा हिन्दी को संपर्क भाषा के रूप में स्वीकारें ☆

भारत एक विशाल देश है। विभिन्न प्रदेशों में विभिन्न भाषाएँ बोली जाती हैं, परंतु सभी भाषाओं की धरोहर भारतीय संस्कृति ही है। प्रत्येक भाषा में रामायण और महाभारत के ग्रंथ उपलब्ध हैं। विभिन्न भाषाओं में कश्मीर से कन्याकुमारी तक एक ही विषय पर साहित्य उपलब्ध होना कोई नई बात नहीं है। यही कारण है कि अपनी मूल भाषा की उन्नति के लिए क्षेत्रीय लोगों का उद्वेलित होना एक सीमा तक उचित प्रतीत होता है। हर व्यक्ति अपनी समृद्धि के रक्षार्थ हद से आगे जा सकता है। हिन्दी को लेकर भी कुछ इसी तरह का विरोध समझ में आता है परंतु इसमें क्षेत्रीय भाषा बोलने वाले कितने दोषी हैं। यह एक चर्चात्मक विषय है। इसके लिए शासन की कमजोरियाँ एवं प्रचार-प्रसार का गलत नजरिया भी दोषी है, जिसके कारण क्षेत्रीय भाषा बोलने वालों को शायद ऐसा भ्रम होने लगता है कि हिन्दी के प्रचार-प्रसार से कहीं वे अपनी भाषा ही को न खो बैठें। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि आज हिन्दी के अतिरिक्त सभी अन्य भाषा बोलने वाले लोगों का झुकाव गुरोत्तर अंग्रेजी की ओर होने लगा तथा शासन द्वारा लगातार की जा रही उपेक्षा आग में घी का काम कर रही है। आज देश के प्रत्येक शिक्षित एवं समृद्ध वर्ग की संस्कृति इंग्लिश, हिन्दी एवं अंग्रेजी का मिश्रण होती जा रही है। आज उच्च वर्ग का आधार अंग्रेजियत से भी जोड़ा जाता है। इस परिवेश में हिन्दी की सार्थकता पर चिंतित होना स्वाभाविक है। प्रत्येक राष्ट्र की अपनी एक सर्वसम्मत भाषा होती है, जिसका आदर एवं प्रचार-प्रसार करना प्रत्येक देशवासी का कर्त्तव्य होना चाहिए। आज हमारे देश में राष्ट्रभाषा के नाम पर स्वीकृत हिन्दी अपने आपको यथोचित स्थान पर स्थापित करने में असमर्थता का अनुभव करती है। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि राष्ट्र स्वतंत्रता की स्वर्ण जयंती तक पहुँचकर भी हिन्दी की प्रगति नहीं कर सकता। आज हम गर्व के साथ कह सकते हैं कि साहित्य तकनीकी एवं चिकित्सकीय क्षेत्र में भी हिन्दी बहुत आगे निकल गई है। हिन्दी शब्दकोष विशाल से विशालतम हो गया है। प्रत्येक हिन्दी भाषी को उसकी सार्थकता का अनुभव देश-विदेश में होने लगा है। यह अक्षरतशः सत्य है कि हिन्दी अब किसी भी विदेशी भाषा से कमजोर नहीं है। इतनी समर्थ भाषा का सर्वसम्म6 राष्ट्रभाषा बनने की असमर्थता निश्चित रूप से कुछ लोगों की अदूरदर्शिता के अलावा और कुछ नहीं है , क्योंकि संविधान में स्पष्ट रूप से उल्लिखित है कि किसी भी प्रादेशिक भाषा का विकास भी उतना ही आवश्यक है । जितना कि राष्ट्रभाषा हिन्दी का सर्वांगीण विकास। आज समय की मांग है कि भारत की सुख-समृद्धि चाहने वाला प्रत्येक भारतवासी सारे भ्रम दूर कर अपनी भाषा के साथ-साथ राष्ट्रभाषा हिन्दी का भी विकास एवं प्रचार-प्रसार करे तभी हिन्दी की सार्थकता में चार चाँद लग सकेंगे।

अंततः यह कहना उचित होगा कि चाहे राष्ट्र की प्रगति का प्रश्न हो या जन जागृति का, प्रदेश की बात हो अथवा संपूर्ण राष्ट्र की, जब तक हिन्दी भारत की संपर्क भाषा के रूप में अंगीकृत नहीं की जाती तब तक इसकी वास्तविकता सार्थकता सिद्ध नहीं होगी और न ही विश्व समुदाय इसकी महत्ता स्वीकार करेगा।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈