डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘ अरे मन मूरख जनम गँवायो ‘। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 99 ☆

☆ व्यंग्य –  अरे मन मूरख जनम गँवायो

जैसे शादी-ब्याह, मुंडन-जनेऊ की एक निश्चित उम्र होती है, उसी तरह साहित्यकार का अभिनन्दन साठ वर्ष की उम्र प्राप्त करने पर ज़रूर हो जाना चाहिए। साठ पार करने के बाद भी अभिनन्दन न हो तो समझना चाहिए दाल में कुछ काला है, वैसे ही जैसे आदमी का ब्याह अट्ठाइस- तीस साल तक न हो तो लगता है कुछ गड़बड़ है। जो पायेदार, पहुँचदार और समझदार साहित्यकार होते हैं उनका अभिनन्दन साठ तक आते आते चार-छः बार हो जाता है। कमज़ोर और लाचार साहित्यकार ही अभिनन्दित होने के लिए साठ की उम्र तक पहुँचने का इन्तज़ार करते हैं।

मेरे जीवन का सबसे बड़ा दुख यही है कि साठ पार किये कई साल बीतने के बाद भी अब तक अभिनन्दन नहीं हुआ। जो तथाकथित मित्र हैं उन्होंने इस दिशा में कुछ नहीं किया। दूसरे साहित्यकारों के मित्रों ने उन पर हजार हजार पृष्ठों के अभिनन्दन-ग्रंथ छपवा दिये। इन अभिनन्दन- ग्रंथों के लिखे जाने में अक्सर खुद साहित्यकार का काफी योगदान रहता है। वे ही तय करते हैं कि ग्रंथ में क्या क्या शामिल किया जाए और क्या शामिल न किया जाए, किससे लिखवाया जाए और किससे बचा जाए। आजकल दूसरे साहित्यकारों पर भरोसा नहीं किया जा सकता। आप यह सोचकर निश्चिंत हो जाते हैं कि वे आपकी तारीफ के पुल बाँधेंगे, लेकिन जब ग्रंथ छप कर आता है तो पता चलता है कि जिन पर भरोसा किया था उन्होंने मुँह दिखाने लायक नहीं छोड़ा।

साठ पर पहुँचने से काफी पहले से मैं अपने तथाकथित दोस्तों की तरफ बड़ी उम्मीद से देखता रहा हूँ,लेकिन उन्होंने साठ पूरा करने की निजी बधाई देने और सौ साल तक ज़िन्दा रहने की शुभकामना देने में अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ ली। सवाल यह है कि बिना अभिनन्दन के सौ साल तक क्यों और कैसे जिया जाए?अभिनन्दन- विहीन ज़िन्दगी एकदम बेशर्मी की, बेरस ज़िन्दगी होती है। लानत है ऐसी ज़िन्दगी पर और लानत है ऐसे दोस्तों पर। ऐसे दोस्तों से दुश्मन भले।

आपको रहस्य की बात बता दूँ कि मैंने दस-पन्द्रह हज़ार रुपये अपने अभिनन्दन  के खाते में डाल रखे हैं। कोई भरोसे का आदमी मिले तो उसे सौंपकर निश्चिंत हो जाऊँ। खर्चे के अलावा एक हज़ार रुपये अभिनन्दन के आयोजक को मेहनताने के दिये जाएंगे ताकि काम पुख्ता और मुकम्मल हो।

रकम प्राप्त करने से पहले मुझे आयोजक से कुछ न्यूनतम आश्वासन चाहिए। समाचारपत्रों और स्थानीय टीवी में भरपूर प्रचार होना अति आवश्यक है—अभिनन्दन से पहले सूचना के रूप में और अभिनन्दन के बाद रिपोर्ट के रूप में। स्थानीय अखबारों से मेरे मधुर संबंध हैं, उनका उपयोग किया जा सकता है।

कार्यक्रम में बोलने वाले कम से कम दस वक्ता होना चाहिए। उनका चुनाव मैं करूँगा। उनके अलावा कोई बोलने के लिए आमंत्रित न किया जाए, अन्यथा आयोजक को ज़िम्मेदार ठहराया जाएगा। कार्यक्रम के बीच में बोलने के लिए अपनी चिट भेजने वालों को शंका की दृष्टि से देखा जाए।

कार्यक्रम में सौ, दो सौ श्रोता होना ही चाहिए, अन्यथा कार्यक्रम का कोई मतलब नहीं है। मुझे हाल में एक साहित्यिक कार्यक्रम का आमंत्रण मिला था जिसमें लिखा था कि सबसे पहले पहुँचने वाले पाँच श्रोताओं को पुरस्कार दिया जाएगा। मैंने अभिनन्दित की सूझ की दाद दी। क्या आइडिया है! मेरे कार्यक्रम में भी कुछ ऐसा ही किया जा सकता है। सबसे पहले पहुँचने वालों के अतिरिक्त सबसे अन्त तक रुकने वालों  को भी पुरस्कृत किया जा सकता है। मेरे पास अपनी लिखी किताबों की प्रतियाँ पड़ी हैं। वे पुरस्कार देने के काम आ जाएंगीं।

कार्यक्रम में कम से कम पचास मालाएँ ज़रूर पहनायी जाएं। इसमें बेईमानी न हो। ऐसा न हो कि दस बीस मालाओं को पचास बार चला दिया जाए। सभा में पचास आदमी ऐसे ज़रूर हों जो माला पहनाने को तैयार हों। यह न हो कि नाम पुकारा जाए और आदमी अपनी जगह से हिले ही नहीं। साहित्यकार राज़ी न हों तो कोई भी पचास आदमी तैयार कर लिये जाएं।

एक बात और। कार्यक्रम आरंभ होने के बाद आने जाने का एक ही दरवाज़ा रखा जाए और उस पर तीन चार मज़बूत आदमी रखे जाएँ, ताकि जो घुसे वह अन्त तक बाहर न निकल सके। जो भी बाहर निकलने को आये उसे ये तीन चार स्वयंसेवक विनम्रतापूर्वक हँसते हँसते पीछे की तरफ धकेलते रहें। चाय का भी एक बहाना हो सकता है। श्रोताओं को पीछे धकेलते समय कहा जाए कि बिना चाय पिये हम आपको बाहर नहीं जाने देंगे। ज़ाहिर है कि चाय कार्यक्रम के एकदम अन्त में ही प्रकट हो, जब कृतज्ञता-ज्ञापन की औपचारिकता हो रही हो।

पाँच-छः चौकस और मज़बूत टाइप के लोग श्रोताओं के इर्दगिर्द खड़े रहें ताकि कोई ‘हूटिंग’ न कर पाये। ’हूटिंग’ और आलोचना से मेरे कोमल साहित्यिक मन को धक्का लगता है। स्पष्ट है कि जब मेरे विरोधियों को बोलने का मौका नहीं मिलेगा तो वे ‘हूटिंग’ और हल्ला-गुल्ला मचाने की घटिया हरकत पर उतरेंगे। अतः उनकी छाती पर सवार रहना ज़रूरी होगा।

अभिनन्दन में होती देर से जब मन उदास होता है तो मन को यह कह कर समझा लेता हूँ कि हर महान आदमी के साथ ऐसा ही होता है। एक तो सामान्य और नासमझ लोग महानता को देर से पहचान पाते हैं। दूसरे, जो समझ पाते हैं वे दूसरे की महानता से जलते हैं। महानता को स्वीकार करने के लिए जो उदारता चाहिए वह उनमें कहाँ?इसलिए मुझे पूरा यकीन है कि अभिनन्दन में विलम्ब मेरी महानता का सबूत है।  ‘दिल के ख़ुश रखने को ग़ालिब ये ख़याल अच्छा है।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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Shyam Khaparde

दमदार व्यंग,सर बधाई