श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “सोता हुआ सागर जगा…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ सोता हुआ सागर जगा… ☆
जिस परिवेश में हम रहते हैं उसका प्रभाव हमारे व्यक्तित्व में पड़ना स्वाभाविक है। जब मन क्रोध के वशीभूत हो उस समय कोई निर्णय न करके मन शांत होने का इंतजार करें इससे किसी भी प्रकार के विवाद की संभावना से बचा जा सकता है। हम जो सोचते हैं वही शब्दों के रूप में हमारी वाणी से व्यक्त होता है। जिसे धोखे से कह दिया या जबान फिसल गयी का नाम दे दिया जाता है।
जो विष को धारण करना जानता है वही शिवत्व को प्राप्त करता है, कंठ में विष रखकर भी लोक कल्याण का भाव कैसे रखें ये तो भोलेनाथ से सीखा जा सकता है। स्वयं भले हलाहल के साथ रहें परन्तु सबको अमृत दें। कहते हैं जो देंगे वही मिलेगा, सकारात्मक भाव के साथ अच्छा चिंतन शुभफलदायी होता है। सनातन धर्म के सारे पर्वों का उद्देश्य यही है।विश्व कल्याण की भावना के साथ असत्य पर सत्य की जीत, बुराई पर अच्छाई की जीत को दर्शाने हेतु हर वर्ष रावण का दहन किया जाता है, ताकि जनमानस तक ये संदेश जाए कि बुराई का अंत समय- समय पर करते रहना चाहिए जिससे उसकी जड़ें न फैलने पाएँ। जब – जब पाप बढ़ा है तब- तब सत्य रूपी राम ने उसका वध किया है। वैचारिक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दुरुपयोग न करते हुए सर्वे भवन्तु सुखिनः का भाव रखकर अपने कार्यों को करें। कभी मंदिरों में जाकर देखिए आरती के बाद धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो, प्राणियों में सद्भावना हो, विश्व का कल्याण हो आदि के स्वर गुंजित होते हैं।
तो आइए हम सब भी अपने अंदर की बुराइयों को पहचान कर उन्हें दूर करें तभी इन त्योहारों को सच्चे अर्थ में जीवन से जोड़ा जा सकेगा और समस्त जगत एक सूत्र में बांधकर मानवता को गौरवान्वित करेगा।
© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’
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