श्री संजय भारद्वाज
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
☆ संजय उवाच # 98 ☆ स्वतन्त्रता दिवस विशेष – जयहिंद! ☆
विश्व के हर धर्म में स्वर्ग की संकल्पना है। सद्कर्मों द्वारा स्वर्ग की प्राप्ति का लक्ष्य है। हमारे ऋषि-मुनियों ने तो इससे एक कदम आगे की यात्रा की। उन्होंने प्रतिपादित किया कि मातृभूमि स्वर्ग से बढ़कर है, ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी। विदेशी आक्रांताओं के विरुद्ध हमारे राजाओं का संघर्ष इसी की परिणति था।
कालांतर में अँग्रेज़ आया। संघर्ष का विस्तार हुआ। आम जनता भी इस संघर्ष में सहभागी हुई।
संघर्ष और स्वाधीनता का परस्पर अटूट सम्बन्ध है। स्वाधीन होने और स्वाधीन रहने के लिए निरंतर संघर्ष अनिवार्य है। मृत्यु का सहज वरण करने का साहस देश और देशवासियों की अखंड स्वतंत्रता का कारक होता है।
एक व्यक्ति ने एक तोता पकड़ा। उड़ता तोता पिंजरे में बंद हो गया। वह व्यक्ति तोते के खानपान, अन्य सभी बातों का ध्यान रखता था। तोता यूँ तो बिना उड़े, खाना-पीना पाकर संतुष्ट था पर उसकी मूल इच्छा आसमान में उड़ने की थी। धीरे-धीरे उस व्यक्ति ने तोते को मनुष्यों की भाषा भी सिखा दी। एक दिन तोते ने सुना कि वह व्यक्ति अपनी पत्नी से कह रहा था कि अगले दिन उसे सुदूर के एक गाँव में किसी से मिलने जाना है। सुदूर के उस गाँव में तोते का गुरु तोता रहता था। तोते ने व्यक्ति से अनुरोध किया कि गुरू जी को मेरा प्रणाम अर्पित कर मेरी कुशलता बताएँ और मेरा यह संदेश सुनाएँ कि मैं जीना चाहता हूँ। व्यक्ति ने ऐसा ही किया। शिष्य तोते का संदेश सुनकर गुरु तोते अपने पंख अनेक बार जोर से फड़फड़ाए, इतनी जोर से कि निष्चेष्ट हो ज़मीन पर गिर गया।
लौटकर आने पर व्यक्ति ने अपने पालतू तोते सारा किस्सा कह सुनाया। यह सुनकर दुखी हुए तोते ने पिंजरे के भीतर अपने पंख अनेक बार जोर-जोर से फड़फड़ाए और निष्चेष्ट होकर गिर गया। व्यक्ति से तोते की देह को बाहर निकाल कर रखा। रखने भर की देर थी कि तोता तेज़ी से उड़कर मुंडेर पर बैठ गया और बोला, ” स्वामी, आपके आपके स्नेह और देखभाल के लिए मैं आभारी हूँ पर मैं उड़ना चाहता हूँ और उड़ने का सही मार्ग मुझे मेरे गुरु ने दिखाया है। गुरुजी ने पंख फड़फड़ाए और निश्चेष्ट होकर गिर गए। संदेश स्पष्ट है, उड़ना है, जीना है तो मरना सीखो।”
नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने भी जून 1944 के अपने ऐतिहासिक भाषण में अपने सैनिकों से यही कहा था। उनका कथन था,” किसी के मन में स्वतंत्रता के मीठे फलों का आनंद लेने की इच्छा नहीं होनी चाहिए। एक लंबी लड़ाई अब भी हमारे सामने है। आज हमारी केवल एक ही इच्छा होनी चाहिए- मरने की इच्छा ताकि भारत जी सके। एक शहीद की मौत मरने की इच्छा जिससे स्वतंत्रता की राह शहीदों के खून से बनाई जा सके।”
देश को ज़िंदा रखने में मरने की इस इच्छा का महत्वपूर्ण योगदान होता है। 1947 का कबायली हमला हो, 1962, 1965, 1971 के युद्ध, कश्मीर और पंजाब में आतंकवाद, कारगिल का संघर्ष या सर्जिकल स्ट्राइक, बलिदान के बिना स्वाधीनता परवान नहीं चढ़ती। क्रांतिकारियों से लेकर हमारे सैनिकों ने अपने बलिदान से स्वाधीनता को सींचा है।स्मरण रहे, थे सो हम हैं।
आज स्वाधीनता दिवस है। स्वाधीनता दिवस देश के नागरिकों का सामूहिक जन्मदिन है। आइए, सामूहिक जन्मोत्सव मनाएँ, सबको साथ लेकर मनाएँ। इस अनूठे जन्मोत्सव का सुखद विरोधाभास यह कि जैसे-जैसे एक पीढ़ी समय की दौड़ में पिछड़ती जाती है, उस पीढ़ी के अनुभव से समृद्ध होकर देश अधिक शक्तिशाली और युवा होता जाता है।
देश को निरंतर युवा रखना देशवासी का धर्म और कर्म दोनों हैं। चिरयुवा देश का नागरिक होना सौभाग्य और सम्मान की बात है। हिंद के लिए शरीर के हर रोम से, रक्त की हर बूँद से ‘जयहिंद’ तो बनता ही है।…जयहिंद!
© संजय भारद्वाज
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
सच है, स्वतंत्रता की राह बलिदानियों के बलिदान से ही बनती है ताकि आगे की पीढ़ी स्वतंत्र वायु में सांस ले सके। उन बलिदानियों के बलिदानों के लिए हम सदैव उनके ऋणी रहेंगे। जयहिंद। वंदेमातरम्।