डॉ कुंदन सिंह परिहार
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य ‘स्वर्ग-प्राप्ति में पति की उपयोगिता’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ व्यंग्य – स्वर्ग-प्राप्ति में पति की उपयोगिता ☆
गुनवंती देवी पिछली शाम प्रवचन सुनने गयीं थीं। तभी से कुछ सोच में थीं। बार बार नज़र पति के चेहरे पर टिक जाती थी, जैसे कुछ टोह रही हों।
आखिर बोल फूटा, बोलीं, ‘मन्दिर में दो दिन से पुखराँय वाले पंडिज्जी का प्रवचन चल रहा है। कल कहने लगे, कितना भी भगवान की भक्ति और सेवा कर लो,स्त्री को पति की सेवा के बिना स्वर्ग नहीं मिल सकता। कह रहे थे पति के बिना स्त्री की कोई गति नहीं है।’
पतिदेव दाँत खोदते हुए अन्यमनस्कता से बोले, ‘अच्छा!’
गुनवंती देवी थोड़ा सकुचाते हुए बोलीं, ‘अब देखिए, स्वर्ग की इच्छा तो हर प्रानी को होती है। हम भी स्वर्ग जाना चाहते हैं। इसलिए हमने सोच लिया है कि अब मन लगाकर आपकी सेवा करेंगे और आपके आसिरवाद से स्वर्ग का प्रवेश पक्का करेंगे।’
पतिदेव घबराकर बोले, ‘अरे भई, अब तक तो तुमने कोई खास सेवा की नहीं है। दिन भर बातें ही सुनाती रहती हो। अब सेवा करने से पिछला कैसे पूरा होगा?’
गुनवंती देवी कुछ लज्जित होकर बोलीं, ‘हाँ जी, आप ठीक कहते हैं। अब तक तो आपकी कुछ खास सेवा नहीं हो पायी। अब वो अंगरेजी में कहते हैं न, ‘कंसेंट्रेटेड’ सेवा करेंगे तो पिछला भी पूरा हो जाएगा।’
फिर बोलीं, ‘अब हम सबेरे उठने पर और रात को सोते बखत आपके चरन छुएंगे। इससे काफी पुन्न मिलेगा। लेकिन आप अपने पैरों को थोड़ा साफ रखा करो। ऐसे ही गन्दे रखोगे तो हमें दूर से धरती छू कर ही काम चलाना पड़ेगा।
‘दूसरी बात यह है कि अब आपके नहाने के बाद बनयाइन वगैरा हमीं छाँटेंगे। लेकिन आप अपनी बनयाइन रोज बदल लिया करो। परसों हमने धोने के लिए डाली तो पसीने से इतनी गंधा रही थी कि हमें उबकाई आ गयी।’
पतिदेव पत्नी की मधुर बातें सुनते उन्हें टुकुर-टुकुर निहारते रहे।
गुनवंती देवी बोलीं, ‘अब जब आप खाना खाओगे तो हम बगल में बैठकर पंखा डुलाएंगे। हमारे पास पुराना बाँस का पंखा पड़ा है।’
पतिदेव बोले, ‘क्या करना है? सीलिंग फैन तो लगा है।’
गुनवंती देवी ने जवाब दिया, ‘सीलिंग फैन तो अपना काम करेगा, लेकिन उससे पुन्न थोड़इ मिलेगा। हम आपके खाने की मक्खियाँ भगायेंगे।’
पतिदेव बोले, ‘अपने घर में मक्खियाँ कहाँ हैं?’
गुनवंती देवी बोलीं, ‘नहीं हैं तब भी हम भगायेंगे। पुन्न तो मिलेगा।’ फिर बोलीं, ‘लेकिन जब हम पास बैठें तो डकार जरा कंट्रोल से लेना। ऐसे डकारते हो कि पूरा घर हिल जाता है।’
पतिदेव भावहीन चेहरा लिये उनके वचन सुनते रहे।
गुनवंती देवी बोलीं, ‘खाने के बाद हाथ हमीं धुलवायेंगे।’
पतिदेव भुनभुनाये, ‘वाश-बेसिन तो है।’
जवाब मिला, ‘वाश-बेसिन पर ही धोना, लेकिन हम जग से पानी डालेंगे। नल से नहीं धोना। हाथ धोने के बाद पोंछने के लिए हम तौलिया देंगे।’
गुनवंती देवी आगे बोलीं, ‘जब हम पूजा करेंगे तब आप बगल में बैठे रहा करो। पूजा के बाद आपकी आरती उतारकर तिलक लगाएंगे और प्रसाद खिलाएंगे। लेकिन आपको रोज नहाना पड़ेगा। अभी तो जाड़े में पन्द्रह पन्द्रह दिन बदन को पानी नहीं छुआते। गन्दे आदमी की आरती कौन उतारेगा?
‘रात में पाँव धो के सोओगे तो थोड़ी देर पाँव भी दबा दिया करेंगे। उसमें पुन्न का परसेंटेज बहुत ज्यादा रहता है।’
पतिदेव ने सहमति में सिर हिलाया।
अगले सबेरे से गुनवंती देवी का पति-सेवा अभियान शुरू हो गया। सबेरे पाँच बजे से पति को हिलाकर उठा देतीं, कहतीं, ‘उठो जी!बैठकर पाँव जमीन पर रखो। लेटे आदमी का पाँव छूना अशुभ होता है।’
पतिदेव चरणस्पर्श का पुण्यलाभ देकर फिर बिस्तर पर लुढ़क जाते। लेकिन उनका सुकून थोड़ी देर का ही रहता। फिर उठ कर नहा लेने के लिए आवाज़ लगने लगती। वे ऊँघते ऊँघते, मन ही मन पुखराँय वाले पंडिज्जी को कोसते, बाथरूम में घुस जाते।
गुनवंती देवी पति-परमेश्वर की आरती उतारतीं तो भक्ति के आवेग में आँखें मूँद लेतीं। परिणामतः पतिदेव को आरती की मार से अपनी ठुड्डी और नाक को बचाना पड़ता। कभी नाक में आरती का धुआँ घुस जाता तो छींकें आने लगतीं।
रात को गुनवंती देवी नियम से पति के पैर चाँपती थीं, लेकिन उनकी डाँट- फटकार से बचने के लिए पतिदेव को अपने पैर और तलुए रगड़ रगड़ कर धोने पड़ते थे। फिर भी सुनने को मिलता—‘हे भगवान, तलुए कितने गन्दे हैं!देखकर घिन आती है।’
पतिदेव का दोस्तों के घर रात देर तक जमे रहना बन्द हो गया क्योंकि गुनवंती देवी को दस बजे नींद आने लगती थी और सोने से पहले पाँव दबाने का पुण्य प्राप्त कर लेना ज़रूरी होता था। वे घड़ी देखकर एक आज्ञाकारी पति की तरह दस बजे से पहले घर में हाज़िर हो जाते। कभी देर तक बाहर रहना ज़रूरी हो तो पाँव दबवाकर फिर से सटक लेते थे।
इस तरह दो ढाई महीने तक गुनवंती देवी की ठोस पति-सेवा चली और इस काल में उन्होंने पर्याप्त पुण्य-संचय कर लिया। लेकिन इस पुण्य-दान में पतिदेव की हालत पतली हो गयी।
फिर एक दिन गुनवंती देवी पति से बोलीं, ‘कल बनारस के एक पंडिज्जी का प्रवचन सुना। उन्होंने समझाया कि परलोक सुधारने के लिए पति की सेवा जरूरी नहीं है। पति और गिरस्ती वगैरा तो सब माया हैं। भगवान की पूरी सेवा से ही स्वर्ग मिलेगा। इसलिए अब हम आपकी सेवा नहीं करेंगे। आपको जैसे रहना हो रहो। जब उठना हो उठो और जितने दिन में नहाना हो नहाओ।’
सुनकर पतिदेव की बाँछें खिल गयीं, लेकिन वे तुरन्त अपनी खुशी दबाकर, ऊपर से मुँह लटकाकर, बाहर निकल गये। उन्हें डर लगा कि उनकी खुशी पढ़कर कहीं गुनवंती देवी अपना फैसला बदल न दें।
© डॉ कुंदन सिंह परिहार
जबलपुर, मध्य प्रदेश
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
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