श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “असहयोग की ताकत”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।
आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
कर्म की ताकत से तो हम सभी परिचित हैं, पर क्या आपने कभी सोचा कि यदि लोग सहयोग करना बंद कर दें तो क्या होगा? जाहिर सी बात है कि प्रशासक की तरक्की वहीं रुक जाएगी। इसी बात को ध्यान में रखकर गांधी जी ने असहयोग आंदोलन चलाया होगा। बिजीलाल जब तब समय का रोना, रोते हुए आगे बढ़ते जा रहे थे, पर लोगों को उनका यह कदम कुछ अटपटा लगने लगा था। दरसल उनकी कार्यशैली ही ऐसी है कब किसको आसमान पर विराजित कर दे तो कब दूसरे को जमीन में पटक दें ये कोई नहीं जान सकता था। कुछ दिनों से उन्हें लोमड़ सिंह का सानिध्य मिलने लगा था, सो उनके तौर तरीके भी वैसे ही हो गए। अब ये दोनों मिलकर लोमड़ियों की तलाश में यहाँ -वहाँ तफरी करते नजर आने लगे। कुछ गुणीजनों ने जब ये मुद्दा उनके दरबार में उठाया तो समझाइश लाल ने धीरे से उनसे कहा, बगावत की बू आ रही है।
अब तो बिजीलाल अपने जोश में आकर कहने लगे बू हो या बदबू मुझे कोई फर्क न पहले पड़ा न अब पड़ेगा क्योंकि मैं तो अपने ही चिंतन में मस्त रहता हूँ। मैं तो आने वाले को जयराम जी व जाने वाले को राम भला करेंगे तो कह ही सकता हूँ। बस सत्ता के नशे में अपने समर्थकों के साथ वे आगे बढ़ ही रहे थे तभी एक लोमड़ी ने चालाकी दिखाते हुए उनकी कार्यशैली पर ही प्रश्न चिन्ह लगा दिया। अब तो उनके समर्थकों ने भी आवाज उठानी शुरू कर दी। ये सब देखकर सामान्य सदस्य भी असमान्य व्यवहार करने लगे।
सबने तय किया कि इनको सबक सिखाना ही होगा। असहयोग आंदोलन छिड़ चुका था। बस इसका नेतृत्व इस बार गुणी जन कर रहे हैं, ये तो समय तय करेगा कि ऊट किस करवट बैठता है। वैसे बैठने- बिठाने की बात से याद आया कि बिजीलाल जी तो कर्मयोगी हैं उन्हें किसी बात से कोई फर्क नहीं पड़ता। जो रहेगा उसे ही प्रतिष्ठित करके अपना काम चला लेंगे। सबसे बड़ा झटका तो तब लगा जब उनके अंधसमर्थक इस चौपाई को रटने लगे –
कोउ नृप होय हमय का हानी।
चेरि छाड़ि न कहाउब रानी।।
ये सुन- सुनकर उनको समझ में आने लगा कि अब कि बार राह इतनी आसान नहीं होगी। लोगों को आँकने में उनसे चूक तो हो चुकी है। अब तो बस-
विधि का विधान जान, हानि लाभ सहिए।
जाहि विधि राखे राम, ताही विधि रहिए।।
© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’
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