डॉ राकेश ‘ चक्र’
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे ।
आज से हम प्रत्येक गुरवार को साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत डॉ राकेश चक्र जी द्वारा रचित श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति साभार प्रस्तुत कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें । आज प्रस्तुत है द्वादश अध्याय।
पुस्तक इस फ्लिपकार्ट लिंक पर उपलब्ध है =>> श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 73 ☆
☆ श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति – द्वादश अध्याय ☆
स्नेही मित्रो सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत गीता का अनुवाद मेरे द्वारा श्रीकृष्ण कृपा से दोहों में किया गया है। पुस्तक भी प्रकाशित हो गई है। आज आप पढ़िए बारहवें अध्याय का सार। आनन्द उठाइए।
– डॉ राकेश चक्र
बारहवाँ अध्याय – भक्तियोग
अर्जुन ने श्रीकृष्ण भगवान से भक्तियोग के बारे में जिज्ञासा प्रकट की——–
अर्जुन पूछे कृष्ण से, पूजा क्या है श्रेष्ठ।
निराकार- साकार में, कौन भक्ति है ज्येष्ठ।। 1
श्रीभगवान ने अर्जुन को भक्तियोग के बारे में विस्तार से समझाया——-
परमसिद्ध हैं वे मनुज, पूजें मम साकार।
श्रद्धा से एकाग्र चित, यही मुझे स्वीकार।। 2
वश में इन्द्रिय जो करें, भक्ति हो एकनिष्ठ।
निराकार अर्चन करें, वे भी भक्त विशिष्ट।। 3
अमित परे अनुभूति के, जो अपरिवर्तनीय।
कर्मयोग कर, हित करें, भक्ति वही महनीय।। 4
निराकार परब्रह्म की, भक्ति कठिन है काम।
दुष्कर कष्टों से भरी, नहीं शीघ्र परिणाम।। 5
कर्म सभी अर्पित करें,अडिग, अविचलित भाव।
मेरी पूजा जो करें, नहीं डूबती नाव।। 6
मुझमें चित्त लगायं जो, करें निरन्तर ध्यान।
भव सागर से छूटते, हो जाता कल्यान।। 7
चित्त लगा स्थिर करो, भजो मुझे अविराम
विमल बुद्धि अर्पित करो, बन जाते सब काम।। 8
अविचल चित्त- स्वभाव से, नहीं होय यदि ध्यान।
भक्तियोग अवलंब से, करो स्वयं कल्यान।। 9
विधि-विधान से भक्ति का, यदि न कर सको योग।
कर्मयोग कल्यान का,सर्वोत्तम उद्योग।। 10
नहीं कर सको कर्म यदि, करो सुफल का त्याग।
रहकर आत्मानंद में, करो समर्पित राग।। 11
यदि यह भी नहिं कर सको, कर अनुशीलन ज्ञान।
श्रेष्ठ ध्यान है ज्ञान से, करो तात अनुपान।। 12
कर्मफलों का त्याग ही, सदा ध्यान से श्रेष्ठ।
ऐसे त्यागी मनुज ही, बन जाते नरश्रेष्ठ।। 12
द्वेष-ईर्ष्या से रहित, हैं जीवों के मित्र।
अहंकार विरहित हृदय, वे ही सदय पवित्र।। 13
सुख-दुख में समभाव रख,हों सहिष्णु संतुष्ट।
आत्म-संयमी भक्ति से, जीवन बनता पुष्ट।। 14
दूजों को ना कष्ट दे, कभी न धीरज छोड़।
सुख-दुख में समभाव रख,मुझसे नाता जोड़।। 15
शुद्ध, दक्ष, चिंता रहित, सब कष्टों से दूर।
नहीं फलों की चाह है, मुझको प्रिय भरपूर। 16
समता हर्ष-विषाद में,है जिनकी पहचान।
ना पछताएं स्वयं से, करें न इच्छा मान। 17
नित्य शुभाशुभ कर्म में, करे वस्तु का त्याग।
मुझको सज्जन प्रिय वही, रखे न मन में राग।। 17
शत्रु-मित्र सबके लिए, जो हैं सदय समान।
सुख-दुख में भी सम रहें, वे प्रियवर मम प्रान। 18
यश-अपयश में सम रहें, सहें मान-अपमान।
सदा मौन, संतुष्ट जो, भक्त मोहिं प्रिय जान।। 19
भक्ति निष्ठ पूजे मुझे, श्रद्धा से जो व्यक्ति।
वही भक्त हैं प्रिय मुझे , मिले सिद्धि बल शक्ति।। 20
इति श्रीमद्भगवतगीतारूपी उपनिषद एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र विषयक भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन संवाद में ” भक्तियोग ” बारहवाँ अध्याय समाप्त।
© डॉ राकेश चक्र
(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)
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