(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी द्वारा रचित एक विचारणीय व्यंग्य दार्शनिक जी का चिड़ियाघर दर्शन….। इस विचारणीय रचना के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 111 ☆
दार्शनिक जी का चिड़ियाघर दर्शन
प्रोफेसर दार्शनिक,चिंतक,विचारक,हिन्दी के ज्ञाता,दर्शन शास्त्र के विद्वान हैं. कोरोना जनित लम्बे लाकडाउन में सपरिवार अपने ही घर में स्वयं की ही नजरबंदी से तंग बच्चों के अनलाक प्रस्ताव को स्वीकार कर वे शहर के बाहरी छोर पर बने चिडियाघर के भ्रमण हेतु आये हुये थे. प्रवेश की टिकिट कटवाते हुये वे सोच रहे थे कि जब यहाँ विभिन्न प्रजातियों के अनेकानेक जानवर हैं तो इसे चिडियाघर ही क्यों कहा जाता है, उन्हें “जू” ज्यादा तर्क संगत लग रहा था. वे जू के लिये चिड़ियाघर से बेहतर हिन्दी समानार्थी शब्द ढ़ूढ़ने के विषय में चिंतन करते भीतर जा पहुंचे.
पहला ही कटघरा मोरों का था, कुछ मोर पंख फैलाकर जैसे उनका स्वागत कर रहे थे. चेहरे पर लगे मास्क भी बच्चो की प्रसन्नता ढ़ंक नही पा रहे थे. दार्शनिक जी ने श्रीमती जी से कहा, जानती हैं यह जो मोर अपने सुंदर पंखो को फैलाकर हमारा स्वागत कर रहा है, यह नर मोर है, और वह मोरनी है जो बदसूरत सी दुमकटी दिखती है. मतलब मोर हमेशा से मोरनी को रिझाने में लगा रहा है. वे साठ डिग्री के कोण में पत्नी की ओर झुकते हुये मुस्करा पड़े.भगवान कृष्ण ने मोर पंख को अपने मुकुट पर धारण कर संभवतः नारी के प्रति इसी सम्मान को प्रतिपादित करना चाहा रहा होगा. नारी विमर्श की इस आध्यात्मिक, दार्शनिक अभिव्यक्ति पर उनकी पत्नी ने भी प्रत्युत्तर में भीनी सी मुस्कराहट के साथ उनका लटकता हुआ मास्क ठीक कर दिया.उन्हें “जंगल में मोर नाचा किसने देखा”, वाले मुहावरे की याद आई, वे खुश थे कि यहां नाचते हुये मोरों के साथ सेल्फी लेने वाले कई लोग थे.
अगले ही दड़बे में लाल आखों वाले प्यारे से कई सफेद खरगोश बंद थे. दार्शनिक जी को कछुये और खरगोश की नीति कथा की याद आ गई. उस कथा में तो खरगोश अपने आलस्य व अति आत्मविश्वास के कारण कछुये की लगन और निरंतरता के सामने हार गया था, पर आज तो खरगोश जैसे जानबूझ कर पीछे बने रहना चाहते हैं. पिछड़े बने रहने के आज अनेकानेक लाभ दिखते हैं, आरक्षण मिलता है. पिछड़ो का विकास सरकार की जबाबदारी लगती है. पिछड़ेपन की दौड़ में आगे आने के लिये अपनी समूची जाति को ही पिछड़ा घोषित करवाने के लिये कुछ समुदाय आंदोलन करते हैं.
दार्शनिक जी के मन में चल रही उहापोह से अनभिज्ञ बच्चे खुशी से खिलखिलाते आगे बढ़ गये थे. वे जिस कांच से घिरे कटघरे के चारों ओर खड़े थे उसमें अनेक प्रजातियो के सांप दिख रहे थे. दार्शनिक जी को एक साथ ही कई मुहावरे याद हो आये. अजगर को देख वे सोचने लगे ” अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम दास मलूका कह गये सबके दाता राम. “संत मलूकदास के नास्तिक से रामभक्त बनने की कहानी उन्हें स्मरण हो आई. वे अनायास हुये लाकडाउन से उपजी घटनायें याद कर सोचने लगे कि जरूरत मंदो के लिये श्री राम कभी सोनू सूद बनकर आते हैं, कभी सरकारी अधिकारी बनकर. कितना अच्छा हो कि हम सब अपने भीतर छिपे, छोटे या बड़े सोनू सूद को थोड़ा सा पनपने के अवसर देते रहें. कभी किसी की आस्तीन के सांप न बने. और न ही किसी आफिस में कोई किसी फाईल पर कुंडली मारकर बैठ जाये. दूसरों की उन्नति देखकर कभी किसी की छाती पर सांप न लोटे, तो दुनियां कितनी बेहतर हो.
पास ही जाली के घेरे में ऊंची ऊंची घास के मैदान में कई नील गायें चर रहीं थीं. बेटे ने पूछा पापा नीलगाय दूध नहीं देतीं क्या, श्रीमती जी ने जबाब दिया नहीं बेटा, इसीलिये ये इंसानो के लिये जानवरो की एक प्रजाति मात्र हैं,कभी जभी इनका इस्तेमाल पर्यावरण वादी एक्टिविस्ट पशु अधिकारो के प्रति चेतना जगाने के नाम पर अपनी राजनीति चमकाने के लिये कर लेते हैं. वैसे इंसान को दुधारू गाय की दुलत्तियां भी बुरी नहीं लगतीं. सफेद मोजे से पहने दिखते वन भैंसों का एक झुण्ड भी पास ही घास चरते हुये दिख रहा था, उन्हें इंगित करते हुये दार्शनिक जी ने बच्चो को बतलाया कि ये बायसन हैं, शेर से भी अधिक बलशाली. ये शाकाहार की शक्ति के प्रतीक हैं. उन्होने बच्चो का ज्ञानवर्धन किया कि घास की रोटियां खाकर भी महाराणा प्रताप ने अकबर की सेना को लोहे के चने चबवा दिये थे. शाकाहार की बात से दार्शनिक जी को मन ही मन सड़को पर बेखौफ घूमते शाकाहारी सांड़ो के चित्र दिखने लगे. वे समाज के भांति भांति के साड़ों के विषय में चिंतन मग्न हो गये, इंसानी शक्ल में ये सांड़ उन्हें अलग अलग झंडो तले मनमर्जी की करते दिखे.
मैदान में पानी के एक छोटे से कुंड के पास ध्यान लगाये एक सफेद बगुला बैठा दिख रहा था. दार्शनिक जी को सचिवालय की कैंटीन याद हो आई, जहां जब कभी वे चाय पीने जाते उन्हें बगुले नुमा सफेद पोश दलाल मिल ही जाते, जो मछली नुमा आम आदमियो को अपनी गिरफ्त में लेने के लिये ऐसे ही घात लगाये बेवजह से बैठे दिख जाते हैं.
बड़ें बड़े कांच के एक्वेरियम में मगरमच्छ, घड़ियाल,कछुये, और तरह तरह की रंग बिरंगी मछलियों की अलग ही वीथीका थी. यहां टहलते हुये दार्शनिक जी का दर्शन यह था कि एक मछली भी पूरे तालाब को गंदा कर सकती है. आज तो हर नेता आम आदमी की चिंता में घड़ियाली आंसू रोता ही मिलता है. किसी भी तरह सब अपना उल्लू सीधा करने के चक्कर में जुटे हैं. राजनीति की में हर शाख पे उल्लू बैठे दिखते हैं, ऐसे में अंजामें गुलिस्तां की चिंता हर नागरिक के लिये बहुत जरूरी हो गई है.
चलते चलते बच्चे थकने लगे थे, श्रीमती दार्शनिक ने पेट पूजा का प्रस्ताव रखा जिसे सबने एक मत से उसी तरह स्वीकार कर लिया जैसे सांसद बिना पक्ष विपक्ष के भेदभाव, स्वयं की वेतन वृद्धि के प्रस्ताव को बिना बहस, मेजें थपथपाकर अंगीकार कर लेते हैं. पराठे, सब्जी के साथ अचार खाते हुये दार्शनिक जी विचार कर रहे थे. वे जो सरकारी अनुदान के रुपये खा जाते हैं, बड़ी बड़ी योजनायें डकार जाते हैं, चारा तक नहीं छोड़ते वे भी आखिर भूख लगने पर खाना ही तो खाते हैं. अपने खयाली पुलाव में दार्शनिक जी इंसानी हवस का कारण तलाश रहे थे, पर उन्हें वह इंसानी वजूद में ही केसर के रंग सी पैबस्त समझ आती है.
चिड़ियाघर की चिड़ियों की वीथीका घूमनी शेष थी, तो भोजनोपरांत वे उस दिशा में बढ़ चले. चलते चलते उन्होने बिटिया से पूछा “घर की मुर्गी दाल बराबर” का क्या अर्थ होता है. जेंडर इक्वेलिटी की घनघोर प्रवर्तक बेटी ने उनसे ही प्रतिप्रश्न कर दिया क्यों ! घर का मुर्गा दाल बराबर क्यों नहीं ? बहस में न पड़ वे चुपचाप जालीदार पिंजड़े नुमा बड़े से घेरे में बन्द विदेशी तोतों को देखने लगे. रंग बिरंगी तरह तरह की छोटी बड़ी आकर्षक चिड़ियों के कलरव में बच्चो का मन रम गया,पर उनकी चहचहाहट के स्वर को समझते हुये वे पत्नी को उन्मुक्त गगन में विचरण करते पंछियों की आजादी की कीमत समझाने लगे.
लौटते हुये जब वे कार तक पहुंचे तो दार्शनिक जी की नजर एक भागते हुये गिरगिटान पर पड़ी. एक छोटा सा छिपकली नुमा जीव जो वक्त जरुरत, अपने परिवेश के अनुरूप अपना रंग बदल लेता है. वे खुद बखुद ठठा कर हंस पड़े.पत्नी ने आश्चर्य से उन्हें देखा. वे कहने लगे सारी दुनियां ही तो एक चिड़ियाघर है. हर शख्स समय के अनुसार अपना रंग ही नही, रूप भी बदल लेता है. जो इस कला में जितना दक्ष है, वह समाज में उतना सफल समझा जाता है. पीछे की सीट पर बैठी बेटी मोबाईल पर फ्लैश खबर बता रही थी कि कोरोना वायरस नये नये स्ट्रेन बदल बदल कर फैल रहा है. दार्शनिक जी बैक व्यू मिरर में खुद का चेहरा देख उसे पढ़ने का यत्न कर रहे थे.
© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
मो ७०००३७५७९८
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
वाह!कितनी अद्भुत कल्पना है! गंभीर विवेचना और सहज स्पर्श करने वाली उत्तम रचना के लिए हार्दिक बधाई।आप कई सामयिक बातें कह गये,कई चुभते प्रश्न छोड़ गये!आपकी लेखनी को नमन !?