हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 95 – लघुकथा – अनंता ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है भाई-भाई केसंबंधों पर आधारित एक लघुकथा  “अनंता। इस विचारणीय लघुकथा के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 95 ☆

 ? लघुकथा – अनंता ?

गणपति का पूजन, अर्चन और अनंत रूप के दर्शन कर सभी बहुत प्रसन्न और शांत मन से अपने अपने घरों की ओर बढ़ रहे थे। एक ही अपार्टमेंट में दो भाइयों का घर, पर दोनों अनजान ऐसे रहते थे कि सभी को लगता था कि दोनों अलग-अलग है।

सुधीर इसी ख्याल को लेकर पंडाल में बैठे देख रहा था कि बिना परिवार के भी यहां सभी परिवार जैसा रहते हैं। परंतु मैंने  अपने छोटे भाई अधीर से क्यों दूरी बना लिया है । उधर आगे बढ़ते पैर ठिठक से गए ।  अधीर का बस यही विचार उसके मन में भी आ रहा था। परंतु दोनों जैसे किसी यंत्रचलित मानव की तरह चलते और देखे जा रहे थे।

हल्की- हल्की रोशनी में दोनों ने देखा कि मम्मी – पापा और सुधीर का बेटा वंश भी चलता आ रहा  हैं। जो कई सालों बाद घर आ रहा था। दोनों ने दौड़कर अगवानी की।

वंश (सुधीर के बेटे ने) गणपति बप्पा के हाथों बंधा हुआ अनंत का धागा निकाला और दिखा कर कहने लगा- “चाचा इसका मतलब आप जानते हैं? इसे अनंता धागा कहा जाता है। साल में अनंत चतुर्दशी के दिन अनंत शुभकामनाएं और सभी के लिए बप्पा से सुख, समृद्धि मांगते हैं। क्यों ना आज दादा-दादी से आप दोनों अपने हाथों पर अनंता  बंधवा कर सदा के लिए एक हो जाएं।”

दोनों यही तो चाह रहे थे। वंश बेटे को गले लगा लिया। मम्मी -पापा के चरणों पर सिर नवा भगवान गणेश की कृपा को सजते- संवरते देखने लगे। वंश ने जोर से ‘गणपति बप्पा’ की आवाज लगाई और सभी अपार्टमेंट वाले देखने लगे आज क्या हो रहा है। सुधीर और अधीर तो बड़े खुश और गले मिल रहे हैं। बात तो अनंत खुशियों की थी।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈