श्री संजय भारद्वाज
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
☆ संजय उवाच # 107 ☆ भाषाई अस्मिता ☆
प्रश्नमंजूषा का एक कार्यक्रम चैनल पर चल रहा है। प्रश्न पूछा जाता है कि चौरानवे में से चौवन घटाने पर कितना शेष बचेगा? सुनने पर यह प्रश्न बहुत सरल लगता है पर प्रश्न के मूल में 94 – 54 = 40 है ही नहीं। प्रश्न के मूल में है कि उत्तरकर्ता को चौरानवे और चौवन का अर्थ पता है या नहीं।
हमारी धरती पर हमारी ही भाषा के अंक और शब्द जिस तरह से निरंतर हमसे दूर हो रहे हैं, उनके चलते संभव है कि भविष्य में किसी प्रश्नमंजूषा में पूछा जाए कि माँ और बेटा साथ जा रहे हैं, बताओ कि उम्र में दोनों में कौन बड़ा है? प्रश्न बचकाना लग सकता है पर केवल उनको जिन्हें माँ और बेटा का अर्थ पता होगा। बाकियों को तो उत्तर से पहले इन शब्दों के परदेसी अर्थ क्रमश: ‘मदर’ और ‘सन’ तक पहुँचना होगा। कुछ मित्रों की दृष्टि में यह अतिश्योक्ति हो सकती है पर अतिश्योक्ति होते तो हम रोज़ देख रहे हैं।
आज, हमारी भाषाओं के अंकों का उच्चारण न केवल कठिन मान लिया गया है, बल्कि मज़ाक का विषय भी बनने लगा है। भविष्य में शब्द समाप्त होने लगेंगे.., लेकिन ठहरिए, समय अधिक नहीं है। भविष्य दहलीज़ पर खड़ा है। कुछ शब्द तो उसने वहाँ खड़े-खड़े ही गड़प लिए हैं। बकौल डेविड क्रिस्टल, ‘एक शब्द की मृत्यु, एक व्यक्ति की मृत्यु के समान है।’
प्रश्न है कि हमारी भाषाई संपदा की अकाल मृत्यु के लिए उत्तरदायी कौन है? क्या केवल व्यवस्था पर इसका दोष मढ़ देना उचित है? निश्चित ही व्यवस्था, विशेषकर शिक्षा के माध्यम का इसमें बड़ा हाथ है। तथापि लोकतांत्रिक व्यवस्था की इकाई नागरिक होता है। इकाई की भूमिका क्या है? अब यह बहाना न तलाशा जाय कि दिन भर रोज़ी-रोटी के लिए खटने के बाद समय और शक्ति कहाँ बचती है कि कुछ और किया जाय? समाचार, क्रिकेट, फिल्में, सोशल मीडिया, शेयर मार्केट, सीरियल, ओ.टी.टी. सबके लिए समय है पर अपनी भाषा की साँसें बचाये रखने के नाम पर विवशता का रोना है।
कहा गया है, ‘धारयेत इति धर्म:।’ अनेक घरों में अकादमिक शिक्षा के अलावा निजी स्तर पर अनिवार्य धार्मिक शिक्षा का प्रावधान है। क्या अपनी सभ्यता और संस्कृति से जुड़ी भाषा और मातृभाषा में बच्चों को पारंगत करना हमारा धर्म नहीं होना चाहिए? इकाई यदि सुप्त होगी तो समुदाय भी सुप्त होगा और जो सुप्त है, उसका ह्रास और कालांतर में विनाश निश्चित है।
अपने पुत्रों की मृत्यु से आहत गांधारी ने महाभारत युद्ध की समाप्ति पर श्रीकृष्ण को श्राप दिया कि यदुवंश का नाश हो जाएगा। माधव सारी स्थितियों से भली-भाँति परिचित थे। बोले, ‘जैसे आशीष, वैसे आपका श्राप भी सिर-माथे पर।..हाँ एक बात है, आप श्राप देती या न देती, यदुवंशी जिस प्रकार अपने कर्मों से दूर होकर सुप्त हुए जा रहे हैं, उसे देखते हुए उनका नाश तो यूँ भी निश्चित है।’
मुद्दा यही है। अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था का श्राप तो है ही, प्रश्न हमारी अपनी सुप्त अवस्था का भी है। शब्दों का भाषा से दूर होते जाना एक तरह से भाषा का चीरहरण है। शनै: शनै: चीर और छोटा होता जाएगा। क्या हम भाषाई अस्मिता को इसी कुचक्र में फँसते देखना चाहते हैं?
अभी भी समय है। सामूहिक प्रयत्नों से हम सब मिलकर योगेश्वर की भूमिका में आ सकते हैं, ताकि चीर अपरिमित हो जाए और उतारने वालों के हाथ थक कर चूर हो जाएँ।
आइए साथ में जुटें। आपकी भाषा को आपकी प्रतीक्षा है।
© संजय भारद्वाज
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
मोबाइल– 9890122603
संजयउवाच@डाटामेल.भारत
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
भाषाई अस्मिता की दृष्टि से संजय उवाच की इस कड़ी के लिए बधाई, पहल की आवश्यकता एक नया भाषाई मोड़ लेकर आएगी , जन जागृति के साथ -साथ स्वयं के प्रयत्नों को भी क्षितिज की ऊँचाई तक पहुँचाना होगा – योगेश्वर का सार्थक उदाहरण आपके विचारों को प्रतिबिंबित करता है – प्रयत्नांती परमेश्वर ….अभिवादन
बहुत सच लिखा है। भाषा के प्रति उदासीनता के परिणाम भयंकर होते हैं। हम केवल अपनी जरूरतों और सुविधाओं की दृष्टि से ही भाषा को देखते हैं।