श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “उलझनों के बीच सुलझन”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।
आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 71 – उलझनों के बीच सुलझन ☆
स्कूल खुलते ही सभी आक्रोशित दिख रहे हैं; एक तरफ बच्चे जो इतने दिनों से अपने अनुसार जीवन जी रहे थे उन्हें गुस्सा आ रहा है तो दूसरी तरफ शिक्षक भी धैर्य खो चुके हैं। जल्दी से अपनी पकड़ मजबूत करने हेतु उल्टे – सीधे निर्णय लेकर बच्चों व अभिवावकों पर नियंत्रण रखने की कोशिश कर रहे हैं। अक्सर ऐसा होता है बिना समय की नब्ज को पहचाने हम अधीरता के वशीभूत निर्णय कर लेते हैं, जो अप्रिय लगते हैं।
दो बच्चों के बीच हाथापाई हुई और कटघरे में आसपास बैठे सारे लोग आ गए।आनन- फानन में प्राचार्या ने बच्चों के स्कूल आने पर प्रतिबंध लगा दिया अब तो सारे अविभावक भी जोश में आकर अपने अधिकारों की माँग पर अड़ गए। एक साथ कई बैठकें रखी गयीं। औपचारिक बातचीत होने के अलावा कुछ भी निष्कर्ष नहीं निकल रहा था। सभी मानसिक उलझनों के बीच कुछ अच्छा ढूंढने की कोशिश में और उलझते जा रहे थे। अंत में ये तय हुआ कि ऐसा कुछ भी नहीं हुआ है, लोग अपनी- अपनी जगह सही हैं; बस इतने दिनों बाद मिल रहे हैं इसलिए एक दूसरे को समझने में थोड़ा वक्त लगेगा।
जाने- अनजाने लोगों द्वारा जब ऐसा होता है तो स्थिति भयावय हो जाती है। कार्यक्षेत्रों में ऐसा होना कोई नई बात नहीं है। भय बिनु होय न प्रीत को चरितार्थ करते हुए भय का सहारा लेकर समय- समय पर लोग अपने उल्लू सीधे करते हुए नज़र आते हैं। इससे टेढ़े- मेढ़े विचारों का जन्म होता और कलह का वातावरण निर्मित हो जाता है। ऐसी तमाम उलझनों से सुलझते हुए जीना कोई आसान कार्य नहीं होता है। बड़े- बड़े गुनी लोग भी आसानी से इसकी गिरफ्त में आ जाते हैं।
आजकल छोटी सी बात को बड़ा तूल देते हुए हफ्ते भर मीडिया वाले जिसका राग अलापते हैं अंत में उसे ही सिरे से खारिज करते हुए कह देते हैं ऐसा कुछ हुआ ही नहीं था ये तो महज सोची समझी चाल थी जो सत्ता दल अपने पक्ष में करने हेतु कर रहा है। वहीं सुस्त विपक्ष भी अचानक से होश में आता है और आनन- फानन में अपने प्रवक्ता द्वारा कहलवाने लगता है हम लोगों का इसमें कोई हाथ नहीं ये तो गोदी मीडिया है। अपने पक्ष में आरोपी ही प्रायोजित साक्षात्कार करवाते हैं और माइंड चेंजिंग गेम की तरह सब कुछ मूक दर्शकों के ऊपर छोड़कर मामले को रफा – दफा कर देते हैं।
कोई भी मुद्दा हो खत्म राजनीति पर ही होता है। जब कोई रास्ता नहीं दिखता तो समस्या का राजनीतिकरण करके मामले को सलटा दिया जाता है। आश्चर्य तो तब होता है कि देश की हर घटना कैसे इससे जुड़ी होती है। क्या जन सेवक ही सबकी सेवा करने के लिए प्रतिबद्ध हैं। अरे भई जनतंत्र है जनता को ही जिम्मेदारी लेना सीखना होगा तभी उलझनों के बीच सुलझन निकल सकेगी।
© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’
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