श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “चक्कर बनाम घनचक्कर”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।
आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 72 – चक्कर बनाम घनचक्कर ☆
अक्सर ऐसा क्यों होता है कि कम बुद्धि वाले लोगों को ही अपने आसपास रखा जाता है। बिना दिमाग लगाए जी हुजूरी करते हुए ये चलते जाते हैं। वहीं बहुत से लोग ऐसे भी होते हैं जो शांति बनाए रखने के चक्कर में घनचक्कर बनना पसंद करते हैं। जो हुक्म मेरे आका की तरह जिनी बनकर पूरा जीवन बिताना पसंद है पर सही का साथ देने की हिम्मत जुटाने में वर्षों लग जाते हैं। जिम्मेदारी से भागने पर कुछ नहीं मिलता केवल दूसरे के सपनों को पूरा करना पड़ता है।
सपने देखने चाहिए पर शेख चिल्ली की तरह नहीं। जिसने लक्ष्य बनाया उसे पूरा किया व दूसरे लोगों को काम पर लगाकर उन्हें नियंत्रित किया नाम व फोटो शीर्ष पर अपनी रखी। जाहिर सी बात है जिसके हाथ में डोर होगी वही तो पतंगों को उड़ायेगा। पतंग उड़ती है ,डोर व हवा उसमें सहयोग देते हैं। आसमान में उड़ते हुए मन को हर्षित करना ये सब कुछ होता है। पर कब ढील देना है कब खींचना है ये तो उड़ाने वाले कि इच्छा पर निर्भर होता है।
इंद्रधनुषी रंगों से सजे हुए आकाश को निहारते हुए सहसा मन कल्पनाओं में गोते लगाने लगा कि काश ऐसा हो जाए कि सारी पतंगे मेरे नियंत्रण में हो इसमें माझा भले ही काँच की परत चढ़ा न होकर प्लास्टिक का हो किन्तु डोरी सफेद और मजबूत कॉटन की ही होनी चाहिए जिसे खींचने पर हाथ कटने का भय न हो। किसी को वश में करने हेतु क्या- क्या नहीं करना पड़ता है। पहले तो पेंच लड़ेगा फिर जीत अपनी हो इसके लिए साम दाम दण्ड भेद सभी का प्रयोग करते हुए ठुनकी देना और अंत में काइ पो छे कहते हुए उछल कूद मचाना।
अरे भई इस तरह के दाँव – पेंच तो आजमाने ही पड़ते हैं। समय के साथ कलाकारी करते हुए आगे बढ़ते जाना ही लक्ष्य साधक का परम लक्ष्य होता है। एक- एक सीढ़ी चढ़ते हुए स्वयं को हल्का करते जाना, पुराने बोझों को छोड़कर नयी उमंग को साथ लेकर उड़ते हुए पंछी जैसे चहकना और साँझ ढले घर वापस लौटना। साधना और लगन के दम पर ही ऐसे कार्य होते हैं। केंद्र पर नजर और भावनाओं पर अंकुश ही आपको दूसरों पर नियंत्रण रखने की श्रेष्ठता दे सकता है। निरन्तर अभ्यास से क्या कुछ नहीं हो सकता है। एक धागा इतनी बड़ी पतंग न केवल उड़ा सकता है बल्कि उससे दूसरों की पतंगे काट भी सकता है। बस नियंत्रण सटीक होना चाहिए। ढील पर नजर रखते हुए हवा के रुख को पहचान कर बदलाव करना पड़ता है। सही भी है जैसी बयार चले वैसे ही बदल जाना गुणी जनों का प्रथम लक्षण होता है। और तो और कुर्सी का निर्धारण करने में भी हवा हवाई सिद्ध होते देखी जा सकती है।
© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’
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व्यंग्य का हिन्दी साहित्य में बहुत ही गहरी पैठ है शब्दों में अपलातूनी का वर्णन करने की विधा प्रदर्शित करता है
काश ऐसा हो जाए कि सारी पतंगे मेरे नियंत्रण में हो ??
हार्दिक धन्यवाद