डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’
(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया। वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम कालजयी दोहे।)
साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 65 – दोहे
निकल ‘हरम’ से आ गए, निभा गए दस्तूर।।
डेढ़ बरस के बाद फिर, शायद मिलें हुजूर।।
हो इलाज परदेश में, ऐसे उनके भाग।
माल गले सरकार का, मिर्जा खेले फाग।।
सेवा की तो शपथ ली, खाया मेवा खूब।
शोला जैसे दमकते, जनता जैसे दूब।।
बेटा बेटी आपके, जन के कीट -पतंग।
दुहरेपन को देख कर, जनता होती तंग।।
अपनी करनी कुछ नहीं, पूर्वज रहे महान।
बस उनके ही नाम से, चला रहे दुकान।।
© डॉ राजकुमार “सुमित्र”
112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
शानदार अभिव्यक्ति