श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा “प्रेम का सुख”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 98 ☆
☆ लघुकथा — प्रेम का सुख ☆
” इतनी खूबसूरत नौकरानी छोड़कर तू उसके साथ।”
” हां यार, वह मन से भी साथ देती है।”
” मगर तू तो खूबसूरती का दीवाना था।”
” हां। हूं तो?”
” तब यह क्यों नहीं,” मित्र की आंखों में चमक आ गई, ” इसे एक बार……”
” नहीं यार। यह पतिव्रता है।”
” नौकरानी और पतिव्रता !”
” हां यार, शरीर का तो कोई भी उपभोग कर सकता है मगर जब तक मन साथ ना दे…..”
” अरे यार, तू कब से मनोवैज्ञानिक बन गया है?”
” जब से इसका संसर्ग किया है तभी समझ पाया हूं कि इसका शरीर प्राप्त किया जा सकता है, मगर प्रेम नहीं। वह तो इसके पति के साथ है और रहेगा।”
यह सुनकर मित्र चुप होकर उसे देखने लगा और नौकरानी पूरे तनमन से चुपचाप रसोई में अपना काम करने लगी।
© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”
18-08-2021
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