डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’
(अग्रज एवं वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं। आज के साप्ताहिक स्तम्भ “तन्मय साहित्य ” में प्रस्तुत है एक ऐसी ही लघुकथा “सुख-दुख के आँसू”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – #2 ☆
☆ सुख-दुख के आँसू…… ☆
अपने सर्वसुविधायुक्त कमरे में सुख के समस्त संसाधनों पर नजर डालते हुए वृध्द रामदीन को पूर्व के अपने अभावग्रस्त दिनों की स्मृतियों ने घेर लिया। अपने माता-पिता के संघर्षपूर्ण जीवन के कष्टों के स्मरण के साथ ही बरबस आंखों ने अश्रुजल बहाना शुरू कर दिया।
उसी समय, “चलिए पिताजी- खाना खा लीजिए” कहते हुए बहू ने कमरे में प्रवेश किया।
अरे–आप तो रो रहे हैं! क्या हुआ पिताजी, तबीयत तो ठीक है न?
हाँ बेटी, कुछ नहीं हुआ तबीयत को। ये तो आँखों मे दवाई डालने से आंसू निकल रहे हैं, रो थोड़े ही रहा हूँ मैं ।
तो ठीक है पिताजी, चलिए मैं थाली लगा रही हूँ ।
दूसरे दिन सुबह चाय पीते हुए बेटे ने पूछा–
कल आप रो क्यों रहे थे, क्या हुआ पिताजी, बताइये हमें?
कुछ नहीं बेटे, बहु से कहा तो था मैंने कि, दवाई के कारण आंखों से आंसू निकल रहे हैं।
पर आंख की दवाई तो आप के कमरे में थी ही नहीं, वह तो परसों से मेरे पास है,
बताइए न पिताजी क्या परेशानी है आपको, कोई गलती या चूक तो नहीं हो रही है हमसे?
ऐसी कोई बात नहीं है बेटे, सच बात यह है कि, तुम सब बच्चों के द्वारा आत्मीय भाव से की जा रही मेरी सेवा-सुश्रुषा व देखभाल से द्रवित मन से ईश्वर से तुम्हारी सुख समृध्दि की मंगल कामना करते हुए अनायास ही खूशी के आंसू बहने लगे थे, बस यही बात है।
किन्तु, एक और सच बात यह भी थी कि इस खुशी के साथ जुड़ी हुई थी पुरानी स्मृतियाँ। रामदीन अपने माता-पिता के लिए उस समय की परिस्थितियों के चलते ये सब नहीं कर पाया था, जो आज उसके बच्चे पूरी निष्ठा से उसके लिए कर रहे हैं।
सुख-दुख के यही आँसू यदा-कदा प्रकट हो रामदीन के एकाकी मन को ठंडक प्रदान करते रहते हैं।
© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’
जबलपुर, मध्यप्रदेश
बहुत बढ़िया कहानी , पापाजी