श्री संजय भारद्वाज
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 122 ☆ अहम् और अहंकार..(2) ☆
अहम् और अहंकार की अपनी विवेचना को आज आगे जारी रखेंगे। संसार नश्वर है। यहाँ कुछ भी स्थायी नहीं। अपने समय पर विभिन्न कारणों से अहंकार करनेवाले भी काल के गाल में समा गये।
एक गृहस्थ ने कहा- ‘घर में मैं अकेला कर्ता हूँ, मैं हूँ तो घरवाले पेट भर रहे हैं। मुझे कुछ हो गया तो जाने क्या होगा?’ पीछे एक दुर्घटना में वह चल बसा। सूतक के दौरान रिश्तेदार और पास-पड़ोसी भोजन भेजते रहे, फिर बच्चों ने छोटी-मोटी नौकरी पकड़ ली। कथित कर्ता के न रहने पर भी उसके परिवार का पेट भरता रहा। कथित कर्ता को जिस श्मशान में फूँका गया, उसी की दीवार पर लिखा था-
मुरदे को प्रभु देत हैं कपड़ा, लकड़ा, आग
ज़िंदा नर चिंता करै, ताँ के बड़े अभाग।
दुनिया में अकूत धन के लिए किसीको नहीं याद किया जाता, अनेक युगों में अनेक रूपवान स्त्रियाँ आईं-गईं, रूप भी आया-गया। प्रसिद्धि के अति भूखे अपने समय में जोड़तोड़ कर अखबारों में, मीडिया में आकर दुनिया की आँखों में बने रहे, बाद में उन्हीं अखबारी कतरनों को निहारते उनका जीवन बीता। अपने अंतिम समय में दुनिया की आँखों के इन कथित तारों को न दीन मिला, न दुनिया। जिन्होंने अपने समय में पैंतरेबाजियों से दूसरोंं को विस्थापन का दंश दिया, बदला समय अपने साथ उनके लिए निर्वासन का शाप लाया।
अनेकदा ऐसा भास होता है कि ज्ञान भी समय की चक्की में पिसकर समाप्त होता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि जिसे हम ज्ञान मान रहे हैं,वह मोटे तौर पर जानकारी का संग्रह मात्र है। वस्तुत: ज्ञान शाश्वत होता है। हर स्थिति में अचल और अडिग रहता है। ज्ञान अक्षय है। अतः सच्चा ज्ञानी अहम् अर्थात अस्तित्व बोध संपन्न तो होता है पर अहंकारी नहीं होता। पृथ्वी के सारे धनों में ज्ञान धन ही ऐसा है जो बाँटने से बढ़ता है। अन्य धन प्राप्त होने से आसक्ति बढ़ती जाती है, ज्ञान विरक्ति के साधन से मन का सारा मैल धो डालता है। हरि को पाकर हरि से भी विरक्ति, ऐसी विरक्ति कि हरि आसक्त हो जाए। उत्कर्ष ऐसा कि जिसे साध्य मानकर यात्रा आरंभ की थी, उसे पाकर उससे भी आगे चल पड़े। साधन, साध्य हो गया और साध्य, साधन रह गया।
कबीरा मन ऐसा निर्मल भया जैसा गंगानीर
पाछै-पाछै हरि फिरे, कहत कबीर-कबीर।
हरि से प्राप्त सामर्थ्य को प्राणपण से निष्काम भाव सहित हरि को अर्पित करनेवाला निरंहकारी, हरि को अपना भक्त कर सकने की असाधारण संभावना का धनी होता है।
.. इति।
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
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संजयउवाच@डाटामेल.भारत
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≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
अद्भुत आध्यात्मिक उन्नति के पथ पर अग्रसर करती रचना । ज्ञान ही वह दौलत है जिसका शाश्वत अस्तित्व है। ऐसी सोच को कोटिश::नमन