श्री अरुण श्रीवास्तव
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आपने ‘असहमत’ के किस्से तो पढ़े ही हैं। अब उनके एक और पात्र ‘परम संतोषी’ के किस्सों का भी आनंद लीजिये। आप प्रत्येक बुधवार साप्ताहिक स्तम्भ – परम संतोषी के किस्से आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ कथा – कहानी # 17 – परम संतोषी भाग – 3 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
जब संतोषी साहब उर्फ सैम अंकल ब्रांच में घुलमिल गये तो उनको पता चला कि यहाँ ३ और ६ दोनों तरह के महापुरुष पाये जाते हैं. 3 याने मिलनसार, मस्तमौला और मनोरंजक व्यक्तित्व के स्वामी और दूसरे विमुख और विरक्त रहने वाले आत्मकेंद्रित पुरुष जिन्हें ६ भी कहा जाता है. ३ अंक वाले तो जहाँ होते हैं, महफिलें गुलजार हो जाती हैं, विनोदप्रियता इनका सहज स्वभाव होता है जो मनोरंजन के साथ साथ सहजता भी संप्रेषित करता रहता है. लोग इनका सानिध्य और उन्मुक्त स्वभाव पसंद करते हैं. संतोषी जी स्वयं भी इसकी जीती जागती मिसाल थे और स्वाभाविक रूप से ऐसी कंपनी पसंद भी करते थे पर वे, इसे आप गुण या दुर्गुण कुछ भी कहें पर ६ अंक वालों को “मुझे तुमसे कुछ भी न चाहिए, मुझे मेरे हाल पे छोड़ दो” गाना गाने का मौका कभी नहीं देते थे.
ऐसे ६ अंक वाले सज्जन “सेल्फ कंप्लेंट सेक्शन” का प्रमुख पद पाने की योग्यता के धनी होते हैं. इनकी शिकायतें शायद जन्म से ही शुरु हो जाती हैं पर माता इसे स्वाभाविक शिशु रुदन मानकर इन्हें दुग्धपान कराते रहती हैं और पिताजी इनकी हर उचित/अनुचित मांग पूरी करते रहते हैं कि बच्चा अब तो खुश होगा. पर बच्चा कभी खुश नहीं होता क्योंकि उसका फोकस पाने से ज्यादा नहीं पा सकने पर रहता है. शिकायत करना पहले मनचाहा फल पाने का प्रयास होता है जो बाद में स्वभाव कब बन जाता है, पता नहीं चलता.ऐसे लोगों का जन्म से यह विश्वास बन जाता है कि अगर रोयेंगे नहीं तो मां दूध नहीं पिलायेगी. असंतोष अपने साथ ईर्ष्या भी लेकर आता है जब सामने वाले की उपलब्धियां इन्हें कुंठित कर देती हैं और ये कभी मानने को तैयार ही नहीं होते कि सफलता हमेशा निष्ठा, योग्यता और श्रम का ही वरण करती है. जो सफल होते हैं, उच्च पदों को सुशोभित करते हैं वे वास्तव में चयनकर्ताओं और चयन प्रक्रिया में उपलब्ध व्यक्तियों में सर्वश्रेष्ठ ही होते हैं. ये बात अलग है कि ६अंक वालों का नेगेटिव एटीट्यूड इसे मानने को तैयार नहीं होता और उन्हें अयोग्य मानकर उनका उपहास करता रहता है. पर जीतने वाला ही सिकंदर कहलाता है भले ही ६ अंक वालों की नज़र में वो मुकद्दर का सिकंदर हो. ऐसे लोगों को हमेशा सैम अंकल यही कहते कि रेस में दौड़ने से ही जीत मिलती है, धावकों की आलोचना करने से नहीं. अगर यह क्षेत्र तुम्हारे लायक नहीं है तो रेस का मैदान बदलने का हक और मौका हमेशा सबके पास होता है. या तो फिर जहाँ रहो जो मिला उस पर मेरी तरह खुश रहो या अपने अंदर मैदान बदलने का साहस पैदा करो.सुरक्षा कायरों का कवच होती है, अभिमन्यु साहस का प्रतीक थे जो महाभारत में अपनी चक्रव्यूह भेदने की अधूरी शिक्षा के बाद भी रणभूमि में कूद गये और अपने कर्तव्य का पालन किया. युद्ध हमेशा सैनिकों के साहस, आशा, उम्मीद और कर्त्तव्य परायणता की भावना से लड़े जाते हैं. इसलिए ही शहीद, अमरत्व और सम्मान दोनों पाते हैं.
वैसे तो ये कथा बैंक के प्रांगण की कहानी है पर इसके माध्यम से जीवन और मानव स्वभाव पर भी कलम चल रही है.
कथा रंग ला रही है तो रंग में भंग होगा नहीं. विश्वास रखिए जारी रहेगी, दवा के डोज़ के रूप में ….
© अरुण श्रीवास्तव
संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈