श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 111 ☆
☆ पुस्तक चर्चा – गांव देस – श्री विवेक कांत मिश्र ‘उजबक’ ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆
पुस्तक समीक्षा
पुस्तक का नाम – गांव देस (कहानी संग्रह)
लेखक —श्री विवेक कांत मिश्र ‘उजबक’
मूल्य- ₹ 175
उपलब्ध – अमेज़न लिंक >> गांव देस
☆ पुस्तक चर्चा – श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆
यदि अगर हम या आप रचना धर्मिता की बात करें तो यह बात स्पष्ट हो जाती है कि एक कुशल रचनाकार अपने कथा पात्रों का चयन तथा पटकथा का ताना-बाना बुनने का कार्य अपने ही इर्द गिर्द के परिवेश से चयनित करता है जो यथार्थ होने के साथ कल्पना प्रधान भी होती है, जो साहित्यिक सौंदर्य को भावप्रधान बना देती है।
मेरा यह कहना भी समसामयिक है कि किसी भी संग्रह का मुखपृष्ठ ही बहुत कुछ कह जाता है। लेखन के बारे में और पाठक को पहली ही नजर में ललचा देता है। यदि हम गांव देस की बात करें तो इसका मुख पृष्ठ अपने उद्देश्य में सफल रहा, और यदि रचना धर्मिता की बात करें तो हम यह पाते हैं कि इस रचना कार को मात्र यही एक संग्रह मुंशी प्रेमचंद के समकालीन तो नहीं, समकक्ष अवश्य खड़ा कर देता है।
लेकिन एक की दूसरे से तुलना एक दूसरे की रचनाधार्मिता के प्रति अन्याय होगा। दोनों रचना कारों में कुछ लक्षण सामूहिक दिखते हैं , जैसे पटकथा, पात्र संवाद शैली तथा कहानी का ग्रामीण परिवेश एक जैसा है अगर कुछ फर्क है तो समय का ज़हां मुंशी प्रेमचंद आज का परिवेश देखने तथा लिखने के लिए जीवित नहीं है, जब कि लेखक महोदय वर्तमान समय में वर्तमान परिस्थितियों का बखूबी चित्रण कर रहे हैं। जैसे–बैजू बावरा, नियुक्ति पत्र, तथा अचिरावती का प्रतिशोध, वर्तमान कालीन सामाजिक विद्रूपताओं, योजनाओं में व्याप्त भ्रष्टाचार तथा कथा नायकों की मजबूरी का कच्चा चिट्ठा है, तो प्रतिज्ञा सामूहिक परिवार में घट रही घटनाओं के द्वारा मन के भावों का उत्कृष्ट नमूना पेश करती है जिनके कथा पात्रों के भावुक कर देने वाले संवाद में पाठक खो सा जाता है, जब कि काफिर की बेटी तथा चिकवा कहानी सामाजिक समरसता और इंसानियत की ओर इशारा करती है, तथा हमारे संकुचित दृष्टिकोण और विचार धारा को आवरणहीन कर देती है। इसके साथ ही साथ दिदिया कहानी इस पुस्तक रचनाओं में सिरमौर है। यह रचना भावनाओं का पिटारा ही नहीं है जिसमें दया करूणा प्रेम मजबूरी बेबसी समाई है बल्कि उसका दूसरा राजनैतिक पहलू भी बड़े ही बारीकी से उजागर किया गया है कि आर्थिक उदारीकरण किस प्रकार विदेशी पूंजी वाद बढ़ावा देता है और कैसे हमारे छोटे-छोटे गृहउद्योगों को लील जाता है।
उससे रोजी-रोटी कमाने वालों को दर्द और पीड़ा, तथा बर्बादी इसके साथ ही साथ यह कहानी बुनकर समाज दुर्गति को दिखाती है । नए विषय वस्तु के ताने-बाने में बुनी कथा तथा उसके संवाद तो इतने मार्मिक चित्रण प्रस्तुत करते हैं कि बचपन में हम उनको तानी फैलाते समेटते हुए देख चुके हैं। इस लिए कहानी पढ़ते हुए वे दिन याद आते हैं साथ ही आंचलिक भाषा भोजपुरी शैली के संवाद भले ही अहिंदी भाषी लोगों की समझ से परे हो, लेकिन उसनेे रचना सौंदर्य को निखारने में महती भूमिका निभाने का कार्य किया है। यह रचना बनारसी साड़ी उद्योग को केंद्रित कर लिखी गई है। सर्वथा नया विषय है। उसके भावुक संवाद पाठक को अंत तक रचना पढ़ने को बांधे रखने में सक्षम है।
इस पुस्तक का एक महत्वपूर्ण पहलू और भी है कि इसके कहानी शीर्षक कुछ अजीब से है जो पाठक के मन कहानी पढ़ने समझने की जिज्ञासा तथा ललक जगाते हैं। जैसे अचिरावती का प्रतिशोध,काला नमक, चिकवा आदि। वहीं अंतिम कहानी शीर्षक बिदाई कथा संग्रह के समापन की घोषणा करता जान पड़ता है।और यहीं एक रचना कार की कार्य कुशलता का परिचायक है।
हर्ष प्रकाशन दिल्ली का त्रुटिहीन मुद्रण तारीफ के काबिल है अन्यथा त्रुटि से युक्त मुद्रण तो भोजन में कंकड़ पत्थर के समान लगता है।यह पुस्तक पढ़ने के बाद आप के पुस्तकालयों की शोभा बढ़ा सकती है ।
समीक्षा – सूबेदार पांडेय “आत्मानंद”
संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266