श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना बदलते समीकरण…। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 92 ☆

☆ बदलते समीकरण… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’  

आवेश में दिया गया आदेश खाली रह जाता है। ऐसा मैंने नहीं कहा ये तो भुक्त भोगी कहते हुए देखे व सुनें जा सकते हैं। कहते हैं, कार्यों का परिणाम जब आशानुरूप होता है तो मन सत्संगति की ओर चला ही जाता है।

दिव्य शक्ति के प्रति विश्वास आपको एक नयी ऊर्जा से भर देता है, जो कुछ हुआ वो अच्छा था और जो होगा वो और अच्छा होगा ऐसी सोच  जीने की चाहत को बढ़ाती है।  मन में उमंग हो तो वातावरण सुखद लगता है। किन्तु इन सबमें हारे हुए सिपाही कुछ अलग ही गाथा कहते हुए दिखाई देते हैं।

कुछ लोग इतने निराशावादी होते हैं कि पूरे जीवन भर न तो खुद  करते हैं न किसी को करने देते हैं। जब एक- एक बूंद जुड़कर महासागर  बन सकता है तो थोड़ा- थोड़ा  अनवरत किया गया परिश्रम क्या  जिंदगी को नहीं  बदल सकता ?

इसी उधेड़बुन में दिमाग़  उलझा हुआ था तभी सजगनाथ जी आ पहुँचे।

सजगनाथ जी अपने नाम के अनुरूप हमेशा सजग रहते, आखिर रहे भी क्यों न ? इधर का उधर करना उनकी आदत में शुमार था। पहले तो पुस्तकों को पढ़कर फिर दूसरे का लेख अपने नाम से करने में कुछ मेहनत तो लगती है थी किन्तु जब से तकनीकी ज्ञान से जुड़े तब तो मानो  सारा साहित्य ही उनकी  मुट्ठी में आ गया या ये भी कहा जा सकता है कि बस एक क्लिक करने कि देर  और कोई भी रचना उनके नाम से तैयार ।

अब तो सजग साहब हमेशा ही काव्यपाठ,  उद्घाटन व अन्य समारोह में व्यस्त रहते। एक दिन  अखिलभारतीय स्तर के काव्य पाठ में उनको बुलाया गया वहाँ बड़े- बड़े नेता जी भी आमंत्रित थे   अब तो सजग साहब बड़े घमंड से संचालन करने बैठे उन्होंने  जैसे ही पहली पंक्ति पढ़ी तो लोग वाह- वाह करने लगे तभी  मंच से एक कवि बोल पड़ा अरे सजग  दादा यही कविता तो मुझे पढ़नी है इसे आप बोल दोगे तो मैं क्या करूँगा उन्होंने  बात सम्भालते हुए कहा बेटा तुम्हारे लिए ही तो भूमिका बना रहा था पर क्या करें ये नई पीढ़ी का जोश भी जल्दी होश खो देता है। ये बात तो जैसे- तैसे निपटी पर जैसे ही उन्होंने दूसरी कविता की पंक्ति पढ़ी तो दर्शक दीर्घा से एक महिला उठ खड़ी हुई  अरे ये क्या यह कविता  तो   प्रसिद्ध  छायावादी रचनाकार की है, आप इसे अपनी बता कर श्रोताओं को  उल्लू बना रहे हैं।

तभी पीछे से आवाज़ आयी सज़ग  नाथ जी अब श्रोता भी सजग हो गए हैं, केवल आप ही फेसबुक में रचनाएँ नहीं पढ़ते हम  लोग भी पढ़ते हैं साहब।

खैर ये सब तो उनके लिए कोई नई बात तो थी नहीं ऐसी मुसीबतों से निपटना वो अच्छी तरह जानते थे।

कार्यक्रम बड़े जोर शोर से चल रहा था।  उनकी सजगता  श्रोताओं को बाँधे हुए थी अब सजगनाथ जी के काव्यपाठ की बारी आयी  उनको बड़े आदर सत्कार से एक वरिष्ठ कवि ने आमन्त्रित किया,   आते ही उन्होंने  बड़ी- बड़ी भूमिका बाँधी फिर दो लाइन कविता की बोली, फिर वही हास्य से परिपूर्ण चर्चा शुरू की फिर दो पंक्ति पढ़ी  उसमें भी ये दो पंक्ति उनकी नहीं मशहूर शायरों की थी पूरे एक घण्टे उन्होंने मंच पर काव्यपाठ किया  (संचालन का समय अतिरिक्त) पर स्वरचित पंक्ति के नाम पर कुछ भी नहीं केवल मुस्कुराहट बस उनकी थी बाकी सब कुछ  साहित्यतेय स्तेय था। ऐसा ही सभी क्षेत्रों में होता हुआ दिखाई देता है – क्या नेता क्या अभिनेता।

 

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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