डॉ राकेश ‘ चक्र’
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे ।
आज प्रस्तुत है आपका एक सार्थक एवं भावप्रवण कविता “मेरा प्यारा गीत गया”.
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 104 ☆
☆ मेरा प्यारा गीत गया ☆
दुख-सुख-प्रत्याहार मिला, लेकिन सब कुछ बीत गया।
कभी धूप ने झुलसाया, कभी लहर-सा शीत गया।।
कुछ हैं नौका खेने वाले, कुछ हैं उसे डुबोने वाले।
कुछ हैं गौर वर्ण मानस के, कुछ हैं कपटी, नकली ,काले।
कुछ की आँखें खुली हुई हैं, कुछ के मुख पर स्वर्णिम ताले।
कभी हार का स्वाद चखा, कभी- कभी मैं जीत गया।।
अनगिन स्वप्न सँजोए हमने, पूरे कभी नहीं होते हैं।
कालचक्र के हाथों खुद ही, फँसे हुए हँसते-रोते हैं।
वीर जागते सीमाओं पर, कुछ तो आलस में सोते हैं।
करूँ सर्जना आशा की, फिर भी मन का मीत गया।।
दर्प, मदों में डूबे हाथी, झूम-झूम कर कुछ चलते हैं।
बनते दुर्ग खुशी में झूमें, ढहते हाथों को मलते हैं।
जिसका खाते, उसी बाँह में, बनकर सर्प सदा पलते हैं।
भूल रहा हूँ मैं हँसकर, रोकर, किन्तु अतीत गया।।
संग्रह हित ही पूरा जीवन, भाग रहा भूखे श्वानों-सा।
ढहता रहा आदमी खुद ही, जर्जर हो गहरी खानों-सा।
कभी आँख ने धोखा खाया, कभी अनसुना कर कानों-सा।
कभी बेसुरे गीत सुना, कभी छोड़ संगीत गया।।
क्रूर नियति से छले गए हैं, सुंदर -सुंदर पुष्प सदा ही।
कभी अश्रु ने वस्त्र भिगोए, और भाग्य का खेल बदा ही।
नग्न बदन अब चलें अप्सरा, प्रश्न उठें अब यदा-कदा ही।
पाप-पुण्य की गठरी ले, मेरा प्यारा गीत गया।।
© डॉ राकेश चक्र
(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)
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