डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य”  के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख घर की तलाश। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 127 ☆

☆ घर की तलाश

एक लम्बे अंतराल से उसे तलाश थी एक घर की, जहां स्नेह, सौहार्द, समर्पण व एक-दूसरे के लिए मर-मिटने का भाव हो। परंतु पत्रकार को सदैव निराशा ही हाथ लगी।

आप हर रोज़ आते हैं और अब तक न जाने कितने घर देख चुके हैं। क्या आपको कोई घर पसंद नहीं आया?

–तुम्हारा प्रश्न वाज़िब है। मैंने बड़ी-बड़ी कोठियां देखी हैं–आलीशान बंगले देखे हैं–कंगूरे वाली ऊंची-ऊंची अट्टालिकाएं व हवेलियां भी देखी हैं;  जहां के बाशिंदे अपने-अपने द्वीप में कैद रहते हैं और वहां व्याप्त रहता है अंतहीन मौन व सन्नाटा। यदि मैं उसे चहुंओर पसरी मरघट-सी ख़ामोशी कहूं, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।

–परंतु तुमने द्वार पर खड़ी चमचमाती कारें, द्वारपाल व जी-हज़ूरी करते गुलामों की भीड़ नहीं देखी, जो कठपुतली की भांति हर आदेश की अनुपालना करते हैं। परंतु मुझे तो वहां इंसान नहीं; चलते-फिरते पुतले नज़र आते हैं, जिनका संबंध-सरोकारों से दूर तक का कोई नाता नहीं होता। वहां सब जीते हैं अपनी स्वतंत्र ज़िंदगी, जिसे वे सिगरेट के क़श व शराब के नशे में धुत्त होकर ढो रहे हैं।

आखिर तुम्हें कैसे घर की तलाश है?

–क्या तुम ईंट-पत्थर के मकान को घर की संज्ञा दे सकते हो,जहां शून्यता के अतिरिक्त कुछ भी नहीं होता। एक छत के नीचे रहते हुए भी अजनबी-सम…कब, कौन, कहां, क्यों से दूर– समाधिस्थ।

–अरे विश्व तो ग्लोबल विलेज बन गया है; इंसानों के स्थान पर रोबोट अहर्निश कार्यरत हैं। मोबाइल ने सबको अपने शिकंजे में इस क़दर जकड़ रखा है, जिससे मुक्ति पाना सर्वथा असंभव है। आजकल सब रिश्ते-नातों पर ग्रहण लग गया है। हर घर के अहाते में दुर्योधन व दु:शासन घात लगाए बैठे हैं। सो! दो माह की बच्ची से लेकर नब्बे वर्ष की वृद्धा की अस्मिता भी सदैव दाँव पर लगी रहती है।

  • चलो छोड़ो! तुम्हारी तलाश तो कभी पूरी नहीं होगी, क्योंकि आजकल घरों का निर्माण बंद हो गया है। हम अपनी संस्कृति को नकार पाश्चात्य की जूठन ग्रहण कर गौरवान्वित अनुभव करते हैं और बच्चों को सुसंस्कारित नहीं करते, क्योंकि हमारी भटकन अभी समाप्त नहीं हुई।
  • आओ! हम सब मिलकर आगामी पीढ़ी को घर-परिवार की परिभाषा से अवगत कराएं और दोस्ती व अपनत्व की महत्ता समझाएं, ताकि समाज में समन्वय, सामंजस्य व समरसता स्थापित हो सके। हम अपने स्वर्णिम अतीत में लौटकर सुक़ून भरी ज़िंदगी जिएं, जहां स्व-पर व राग-द्वेष का लेशमात्र भी स्थान न हो। संपूर्ण विश्व में अपनत्व का भाव दृष्टिगोचर हो और हम सब दिव्य, पावन निर्झरिणी में अवगाहन करें; जहां केवल ‘तेरा ही तेरा’ का बसेरा हो। हम अहं त्याग कर ‘मैं से हम’ बन जाएं और वहां कुछ भी ‘तेरा न मेरा’ हो।

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30.3.2022

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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