श्रीमती सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है प्रेमविवाह एवं नए परिवेश में पुराने विचारधारा के बीच सामंजस्य पर आधारित अतिसुन्दर लघुकथा “दायरा … ”। )
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 121 ☆
☆ लघुकथा – दायरा… ☆
मोबाइल पर मैसेज देखकर सुधीर समझ नहीं पा रहा था कि अपनी पत्नी को क्या कहे – – – कि पिताजी ने अकेले ही घर बुलाया है। इसी बीच वैशाली आकर कहने लगी…. मुझे मायके जाना है। हालांकि मेरा वहां कोई नहीं पर, जहां पुराना घर है वहां के सभी लोग मुझे मानते हैं और मम्मी पापा की इच्छा थी कि मैं घर की देखभाल करते रहूँगी।
बस बात बनती देख सुधीर ने चुपचाप हा कह दिया।
तुम अपने घर चली जाना, मुझे ऑफिस के काम से बाहर जाना हैं। आज सुधीर बस में बैठ कर अपने घर के बारे में सोच रहा था। शायद पिताजी मुझे माफ करेंगे या नहीं क्योंकि कुछ साल पहले जहां पर पढ़ाई करने गया था, वहीं एक लड़की से अपनी पसंद से शादी कर लिया था।
पिताजी अपनी जगह सही थे क्योंकि पुराने ख्यालात और घर परिवार की रजामंदी को सर्वोपरि माना जाता था। शादी के बाद पत्नि को घर लेकर गया किन्तु, पिताजी ने घर के अंदर पैर भी रखने नहीं दिया।
वैशाली ने इसका कोई विरोध नहीं किया चुपचाप रही, सुधीर उल्टे पांव उसको लेकर शहर चला गया था। समय जैसे चलता रहा, कहना चाह रहा हो… जो गलती ने सुधीर किया है वह कोई बड़ी गलती नहीं है। आजकल यह सब होने लगा है।
सुधीर के पिता जी प्राइवेट काम करते थे। आफिस में कुछ रुपये पैसों का बड़ा घोटाला हुआ। उसकी वजह से कार्यवाही हुई अपनी सफाई में सुधीर के पिताजी कुछ नहीं कह सके!!! इस कारण उनको निकाल दिया गया था। घर की स्थिति बिगड़ने लगी थी। किसी तरह वैशाली को पता चला। अपनी सादगी, सहजता और कार्यकुशलता से सास ससुर को सहायता करने लगी।
जिसका सुधीर को बिल्कुल भी एहसास नहीं था परंतु बाप बेटे के मनमुटाव को कम नहीं कर सकी।
पिताजी अपनी अड़ी पर थे.. बेटा आकर माफी मांग ले और सुधीर संदेह में रहा.. कि शायद पिताजी माफ नहीं करेंगे।
बस रुकते ही बैग उठा पगडंडी के रास्ते घर के दरवाजे पर पहुंचा। सामने पिताजी की गोद में अपनी बिटिया को देखकर कुछ देर के लिए आवाक हो गया।
आंखों पर ज़ोर देकर फिर से देखा.. हाथ में पानी का गिलास लिए वैशाली निकलकर दरवाजे पर खड़ी थी। पिताजी ने अपने अंदाज में कहा…बहू समझा दे इसको बेटा ही घर का चिराग, सहारा या बैसाखी नहीं होता.. बहू भी बन सकती है।
सुधीर पिता जी के इस बदले रुप को समझ नहीं पाया।
गिलास ले कर एक ही सांस में पानी पी डाला। उसकी समझ में अब आने लगा कि जब भी बाहर होता था वैशाली अपने ही मायके जाने की जिद करती थी। आज समझ में आया वह मायके नहीं उसके घर आती थीं।
पिताजी और मां का सहारा बन चुकी वैशाली विश्वास, दया, ममता और मां पिता जी की बेटी बन चुकी थी।
सिर झुकाए वह वैशाली के प्रति कृतज्ञ था कितना विशाल दायरा है। वह झूठ बोल कर उसे क्या समझाना चाह रहा था?
© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈