श्रीमति विशाखा मुलमुले
(हम श्रीमती विशाखा मुलमुले जी के ह्रदय से आभारी हैं जिन्होंने ई-अभिव्यक्ति के लिए “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” लिखने हेतु अपनी सहमति प्रदान की. आप कविताएँ, गीत, लघुकथाएं लिखती हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं. आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है उनकी रचना कल, आज और कल. अब आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे. )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 5 – विशाखा की नज़र से ☆
☆ कल, आज और कल ☆
रखते हैं तानों भरा तरकश हम अपनी पीठ पर
देते हैं उलाहनों भरा ताना अपने अतीत को
जो, आ लगता है वर्तमान में,
हो जाते हैं हम लहूलुहान ..
भविष्य को तकते, रखते है
उम्मीदों की रंग- बिरंगी थाल दहलीज़ पर
निगरानी में खुली रखतें हैं आँखे ,
पर रंगों की उड़ती किरचों से हो जाती है आँखें रक्तिम …
कल और कल के बीच क्षणिक से “आज” में
झूलते हैं दोलक की तरह
बजते, टकराते है अपनी ही चार दिवारी में
और,
काल बदल जाता है
इसी अंतराल में ।
© विशाखा मुलमुले
पुणे, महाराष्ट्र