डॉ कुन्दन सिंह परिहार
☆ व्यंग्य – एक संगीतप्रेमी ☆
नन्दू भाई को वैसे तो संगीत से कभी कुछ लेना-देना नहीं रहा। संगीत में वे कव्वाली ही पसन्द करते थे, या फिर कोई ‘आसिक मासूक’ की ‘सायरी’ सुनकर मगन हो जाते थे। लेकिन एक दिन एक घटना हो गयी। एक मित्र उनको संगीत समाज के एक कार्यक्रम में पकड़ ले गया। नन्दू भाई वहाँ शास्त्रीय गायन सुनकर उबासियाँ लेते रहे और चुटकियाँ बजाते रहे। गायिका वृद्धावस्था की देहरी पर थी, इसलिए वे उसके मुखमंडल में भी कोई रुचि नहीं ले सके। लेकिन गायिका के साथ जो तबलावादक था उसने समय मिलने पर तबले के कुछ ‘लोकप्रिय’ हाथ दिखाये। नन्दू भाई को और हाथ तो खास नहीं रुचे, लेकिन जब तबलावादक ने तबले पर ट्रेन चलने की आवाज़ निकाली तब वे मुग्ध हो गये। उसी क्षण उन्होंने निश्चय कर लिया कि तबला सीखना है और ज़रूर सीखना है।
शहर में संगीत विद्यालय नया नया खुला था। उसे छात्रों की ज़रूरत थी। इसलिए जब नन्दू भाई वहाँ पहुँचे तो प्राचार्य ने सर-आँखों पर बैठाया। जब नन्दू भाई ने तबला सीखने की इच्छा प्रकट की तो प्राचार्य ने गौ़र से उनकी अरवी के गट्टे जैसी उँगलियों को देखा। पूछा, ‘आप तबला सीखेंगे?’ नन्दू भाई ने उत्तर दिया, ‘जी हाँ, मुझे बड़ा ‘सौक’ है। ‘
नन्दू भाई की तबला ट्रेनिंग शुरू हो गयी। तबला शिक्षक अपनी मेहनत को अकारथ जाते देखता और कुढ़ता, लेकिन क्या करे? बेचारा रेत में से तेल निकालने के लिए मगज मारता रहता।
ट्रेनिंग के दूसरे महीने में एक दिन नन्दू भाई ने तबले पर ज़ोर का ठेका लगाया कि उनका हाथ तबले में घुस गया। तबले का चमड़ा उनकी शक्ति के आगे चीं बोल गया। तबला-शिक्षक का खून सूख गया, लेकिन वह क्या कहे?
उसके अगले महीने फिर एक तबले ने नन्दू भाई के प्रहार के आगे दम तोड़ दिया। संस्था में खलबली मच गयी। नया नया काम था, अगर ऐसे दस-बीस विद्यार्थी आ जाएं तो संस्था का दम निकल जाए।
चौथे महीने में फिर नन्दू भाई ने जोश में ठेका लगाया और उनका हाथ फिर भीतर घुसकर तबले की भीतरी खोजबीन करने लगा। प्राचार्य जी ने हथियार फेंक दिये।
उन्होंने नन्दू भाई को बुलाया, कहा, ‘नन्दू भाई, हमारे खयाल से आप काफी सीख चुके, और फिर पूरा कोर्स करके कौन आपको कहीं नौकरी करना है। जो बाकी बचा है उसे आप घर पर खुद ही सीख सकते हैं। ‘
नन्दू भाई बोले, ‘साहब, नौकरी तो नहीं करनी है लेकिन मेरी डिगरी लेने की इच्छा थी। ‘
प्राचार्य महोदय को पसीना आ गया। बोले, ‘डिग्री लेकर क्या करोगे? वैसे हमने विशिष्ट व्यक्तियों को देने के लिए कुछ मानद उपाधियाँ रखी हैं। आप चाहें तो इनमें से एक आपको दे सकते हैं। ‘
नन्दू भाई ने पूछा, ‘कौन कौन सी उपाधियाँ हैं?’
प्राचार्य बोले, ‘एक ‘तबला वारिधि’ की उपाधि है, एक ‘तबला निष्णात’ की और एक ‘तबलेश’ की। आप जो उपाधि पसन्द करें हम आपको दे सकते हैं। ‘
‘तबला वारिधि’ और ‘तबला निष्णात’ शब्द नन्दू भाई की समझ में नहीं आये। उन्हें ‘तबलेश’ पसन्द आया। एक दिन प्राचार्य जी ने विद्यालय के दस-पाँच लोगों को इकट्ठा करके भाई धनीराम को यह उपाधि प्रदान कर दी और छुटकारे की साँस ली।
चलते समय नन्दू भाई ने प्राचार्य से पूछा, ‘क्या मैं इन फूटे हुए तबलों को निशानी के तौर पर रख सकता हूँ? मैं इनका पैसा दे दूँगा। ‘ प्राचार्य जी ने सहर्ष उनको तीनों फूटे हुए तबले सौंप दिये।
अब नन्दू भाई अपनी तबला ट्रेनिंग के प्रमाण के रूप में लोगों को अपनी ‘तबलेश’ की उपाधि और तीनों फूटे हुए तबले दिखाते हैं। उनको एक ही अफसोस है कि तबला शिक्षक ने उन्हें तबले पर ट्रेन चलाना नहीं सिखाया।
© डॉ कुंदन सिंह परिहार
जबलपुर, मध्य प्रदेश
Very well written