डॉ. मुक्ता
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख समय व ज़िंदगी। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 132 ☆
☆ समय व ज़िंदगी ☆
समय व ज़िंदगी का चोली दामन का साथ है तथा वे दुनिया के सर्वश्रेष्ठ शिक्षक हैं। ज़िंदगी समय की महत्ता, सदुपयोग व सर्वश्रेष्ठता का भाव प्रेषित करती है, तो समय हमें ज़िंदगी की कद्र करना सिखाता है। समय नदी की भांति निरंतर बहता रहता है; परिवर्तनशील है; कभी रुकता नहीं और ज़िंदगी चलने का दूसरा नाम है। ‘ज़िंदगी चलने का नाम/ चलते रहो सुबहोशाम।’ ज़िंदगी हमें यह सीख देती है कि ‘गया वक्त कभी लौटकर नहीं आता और हम अपनी सारी संपत्ति देकर उसके बदले में एक पल भी नहीं खरीद सकते।’ सो! समय को अनमोल जान कर उसका सदुपयोग करें। दूसरी ओर समय ज़िंदगी की महत्ता बताते हुए इस तथ्य को उजागर करता है कि ज़िंदगी की कद्र करें, क्योंकि मानव जीवन उसे चौरासी लाख योनियों के पश्चात् प्राप्त होता है। इसलिए कहा गया है कि ‘यह जीवन बड़ा अनमोल/ ऐ मनवा! राम राम तू बोल।’ एक पल भी बिना सिमरन के व्यर्थ नष्ट नहीं जाना चाहिए, क्योंकि मानव जीवन का अंतिम लक्ष्य कैवल्य की प्राप्ति है।
ज्ञान प्राप्ति के तीन साधन हैं– मनन, अनुसरण व अनुभव। मनन सर्वश्रेष्ठ मार्ग है और सत्य है। अनुसरण सरल व सहज मार्ग है और अनुभव सबसे कड़वा होता है। महात्मा बुद्ध के उपरोक्त कथन में जीवन जीने की कला का दिग्दर्शन है। सो! मानव को हर वस्तु व व्यक्ति के विषय के बारे में चिंतन-मनन करना चाहिए, ताकि उसकी उपयोगिता-अनुपयोगिता, औचित्य-अनौचित्य व लाभ-हानि के बारे में सोच कर निर्णय लिया जा सके। यह सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम मार्ग है। अनुसरण बनी-बनाई लीक पर चलना। मानव को सीधे- सपाट व देवताओं-महापुरूषों द्वारा बताए गये मार्ग का अनुसरण करना चाहिए। ज्ञान-प्राप्ति का अंतिम मार्ग है अनुभव; जो कटु होता है। ऐसा व्यक्ति दूसरों पर लेशमात्र भी विश्वास नहीं करता। वह ग़लत-ठीक के भेद से अवगत नहीं हो पाता। जैसे एक बच्चा बड़ों की बात न मान कर आग को छूता है और जल जाता है और रोता व पछताता है। वास्तव में यह एक कटु अनुभव है, जिसका परिणाम कभी भी श्रेयस्कर नहीं होता। सो! महापुरुषों की सीख पर विश्वास करके उनके द्वारा निर्दिष्ट मार्ग का अनुसरण करना अत्यंत कारग़र है।
मैक्सिम गोर्की के मतानुसार ‘कोई सराहना करे या निंदा दोनों ही अच्छे हैं, क्योंकि प्रशंसा हमें प्रेरणा देती है और निंदा हमें असामान्य स्थितियों में सावधान होने का अवसर प्रदान करती है।’ यह तो आम के आम, गुठलियों के दाम वाली स्थिति है। जब काम स्वेच्छा से हो, तो जीवन में आनंद-प्रदाता है और जब पाबंदी में हो, तो जीवन गुलामी है। यदि मानव की सोच सकारात्मक है, तो प्रशंसा व निंदा दोनों स्थितियाँ हितकारक व प्रेरक हैं, क्योंकि जहां प्रशंसा मानव को प्रोत्साहित व ऊर्जस्वित करती है; वहीं निंदा हमें अनहोनी से बचाती है। प्रशंसा में लोग फूले नहीं समाते तथा निंदा में हताश हो जाते हैं। वास्तव में ये दोनों स्थितियां भयावह हैं। इसलिए मानव को स्वतंत्रतापूर्वक जीने का संदेश दिया गया है, क्योंकि पाबंदी अर्थात् परतंत्रता में रहकर कार्य करना व जीवन-यापन करना गुलामी है। अमुक विषम परिस्थितियों में मानव का सर्वांगीण विकास संभव नहीं है। वैसे मानव हर स्थिति में यह चाहता है कि प्रत्येक कार्य उसकी इच्छानुसार हो, परंतु ऐसा संभव नहीं होता। हम सब उस सृष्टि-नियंता के हाथ की कठपुतलियाँ हैं और वह हमसे बेहतर जानता है कि हमारा हित किस में है। वैसे भी स्वतंत्रता में आनंद है और निर्धारित नियम व कायदे-कानून व दूसरों के आदेशों की अनुपालना के हित कार्य करना परतंत्रता है; गुलामी है। इस स्थिति में मानव की दशा पिंजरे में बंद पक्षी जैसी हो जाती है। वह स्वतंत्र विचरण हेतु हाथ-पांव चलाता तो है,परंतु सब निष्फल। अंत में वह निराश होकर जीवन ढोने को विवश हो जाता है।
दो मिनट में ज़िंदगी नहीं बदलती, परंतु सोच-समझ कर लिए गये निर्णय से ज़िंदगी बदल जाती है। इसलिए मानव से यह अपेक्षा की जाती है कि वह निर्णय लेने से पूर्व उस समस्या के विभिन्न पहलुओं पर चिन्तन-मनन करे, ताकि उसे श्रेष्ठ परिणाम प्राप्त हो सकें। मुझे स्मरण हो रही हैं श्री जयशंकर प्रसाद की पंक्तियां ‘ज्ञान दूर, कुछ क्रिया भिन्न है/ इच्छा क्यों पूरी हो मन की/ एक दूसरे से मिल ना सके/ यह विडंबना है जीवन की’ के माध्यम से उन्होंने इच्छा-पूर्ति के लिए ज्ञान व कर्म के सामंजस्य की सीख दी है। इसके विपरीत आचरण करना मानव जीवन की विडंबना है।
मुझे स्मरण हो रही हैं आनंद फिल्म के गीत की वे पंक्तियां–’जिंदगी एक सफ़र है सुहाना/ यहां कल क्या हो किसने जाना’ अर्थात् भविष्य अनिश्चित है। सो! इस गीत के माध्यम से वर्तमान में जीने का सुंदर संदेश प्रेषित है। ज़िंदगी के सुहाने सफ़र में कल की चिंता मत करें और आज को जी लें, क्योंकि कल कभी आता नहीं। भविष्य सदैव वर्तमान के रूप में दस्तक देता है। गीता में भी यही संदेश प्रेषित है कि ‘जो हो रहा है अच्छा है; जो होगा वह भी अच्छा ही होगा और जो हो चुका है; वह भी अच्छा ही था। इसलिए ऐ मानव! तू हर स्थिति में खुश रहना सीख ले। जो इंसान अपनी इच्छाओं, आशाओं, आकांक्षाओं व तमन्नाओं पर अंकुश लगाना सीख जाता है; उसे संसार रूपी भंवर में नहीं फंसना पड़ता और वह अपनी मंज़िल पर अवश्य पहुंच जाता है। अक्सर अधिक समझदार व्यक्ति की हज़ारों ख़्वाहिशें दिल में ही रह जाती हैं, क्योंकि सीमित साधनों द्वारा असीमित इच्छाओं की पूर्ति संभव नहीं है।
‘सुख के सब साथी, दु:ख में ना कोई’ अर्थात् लोग मुस्कुराहट की वजह जानना चाहते हैं; उदासी की वजह कोई नहीं पूछता।’ इसलिए मानव को ख़ुद से मुलाकात करने की सब ख दी गयी है। जब मानव स्वयं को समझ लेता है; वह आत्मावलोकन करने लगता है, तो उसे दूसरे लोगों के साहचर्य व सहयोग की आवश्यकता ही नहीं पड़ती। समस्याएं हमारे मस्तिष्क में कैद होती हैं और अधिकतर बीमारियों की वजह चिंता होती है। इसका कारण यह है कि मनुष्य चुनौतियों को समस्याएं समझने लगता है और बड़े होने तक वे अवचेतन मन में इस क़दर रच-बस जाती हैं कि लाख चाहने पर भी उनसे निज़ात नहीं पा सकता। उस स्थिति में हम सोच- विचार ही नहीं करते कि यदि समस्याएं ही नहीं होंगी, तो हमारी प्रगति कैसे संभव होगी और हमारी आय के साधन भी नहीं बढ़ेंगे। वैसे समस्याओं के साथ ही समाधान जन्म ले चुके होते हैं। यदि सतही तौर पर समस्त समस्याओं से उलझा जाए, तो उन्हें सुलझाने में न केवल आनंद प्राप्त होता है, बल्कि गहन अनुभव भी प्राप्त होता है। नेपोलियन के मतानुसार ‘समस्याएं तो भय व डर के कारण उत्पन्न होती हैं। यदि डर का स्थान विश्वास ले ले, तो वे अवसर बन जाती हैं। वे विश्वास के साथ आपदाओं का सामना करते थे। इसलिए वे समस्याओं को सदैव अवसर में बदल डालते थे।
समय अनमोल है। यह हमें जीने की कला व कद्र करना सिखाता है और ज़िंदगी समय उपयोगिता का पता ठ पढ़ाती है। सुख-दु:ख एक सिक्के के दो पहलू होते हैं और समस्याएं भी आती-जाती रहती हैं। सो! मानव को धैर्यपूर्वक समस्याओं का सामना करना चाहिए तथा आत्मविश्वास रूपी धरोहर को सहेज कर रखना चाहिए, ताकि हम आपदाओं को अवसर में बदल सकें। समय और ज़िंदगी सबसे बड़े शिक्षक हैं; सीख देकर ही जाते हैं। वैसे इंसान की सोच ही उसे शक्तिशाली या दुर्बल बनाती है। बनूवेनर्ग के मतानुसार ‘वह किसी महान् कार्य के लिए पैदा नहीं हुआ; जो वक्त की कीमत नहीं जानता।’ भगवान श्रीकृष्ण भी ‘पूर्णता के साथ किसी और के जीवन की नकल कर, जीने की तुलना में अपने को पहचान कर अपूर्ण रुप से जीना बेहतर स्वीकारते है।’ मानव को टैगोर की भांति ‘एकला चलो रे’ की राह पर चलते हुए अपनी राह का निर्माण स्वयं करना चाहिए, क्योंकि वह मार्ग आगामी पीढ़ियों के लिए अनुकरणीय बन जाता है।
© डा. मुक्ता
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