श्री अरुण श्रीवास्तव
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है आपके कांकेर पदस्थापना के दौरान प्राप्त अनुभवों एवं परिकल्पना में उपजे पात्र पर आधारित श्रृंखला “आत्मलोचन “।)
☆ कथा कहानी # 32 – आत्मलोचन– भाग – 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
हर व्यक्ति को किसी न किसी वस्तु से लगाव होता है, गॉगल, रिस्टवॉच, बाइक, कार, वाद्ययंत्र आदि, पर आत्मलोचन को अपनी सिटिंग स्पेस याने चेयर या डेस्क से बेइंतहा लगाव था. सीमित आय के बावजूद मेधावी पुत्र के लिये शिक्षक पिता ने घर में पढ़ने के लिये शानदार कुर्सी और दराज़ वाली टेबल उपलब्ध करा दी थी. स्कूल और कॉलेज में फ्रंट लाईन पर बैठने की आत्मलोचन की आदत थी और जब कोई शरारती सहपाठी उसकी सीट पर बैठ जाता तो साम दाम दंड भेद किसी भी तरह अपनी सीट हासिल करना उसका लक्ष्य बन जाता. इसमें शिक्षक का रोल भी महत्वपूर्ण होता जो उसके मेधावी छात्र होने का हक बनता था.
मसूरी में प्रारंभिक प्रशिक्षण के दौरान एकेडमी की एक प्रथा का पालन हर प्रशिक्षार्थी को करना पड़ता था जिसमें हर दिन बैठने का सीक्वेंस, सीट और पड़ोसी का बदलना अनिवार्य था. आत्मलोचन को इस परंपरा से बहुत दिक्कत होती थी पर वो कुछ कर नहीं सकता था. इस का लॉजिक यही था कि अलग अलग स्थानों और अलग अलग व्यक्तियों के साथ सामंजस्य स्थापित करने की कला का विकास हो जो भावी पोस्टिंग में काम आ सके. प्रशिक्षण और फिर प्रेक्टिकल एक्सपोज़र के विभिन्न दौर से गुजरने के बाद अंततः आत्मलोचन जी IAS, चिरप्रतीक्षित कलेक्टर के पद पर नक्सली समस्याग्रस्त जिले में पदस्थ हुये. जिला छोटा पर नक्सली समस्याओं से ग्रस्त था. आवास तुलनात्मक रूप से थोड़ा छोटा पर सर्वसुविधायुक्त था और ऑफिस नया चमचमाता हुआ अपने राजा का इंतज़ार कर रहा था जो इस जिले के पहले direct IAS थे. वे सारे अधीनस्थ अधिकारी /कर्मचारी जो अब तक किसी अधेड़ उम्र के राजा के सिपाहसलार थे अब राजा के रूप में राजकुमार सदृश्य व्यक्ति को पाकर अचंभित थे और शायद हर्षित भी. उन्हें लगा कि कल के इस छोकरे को तो वो आसानी से बहला फुसला लेंगे पर ऐसा न होना था और न ही हुआ. जब भी कोई युवा कलेक्टर के पद पर इस उम्र में पदस्थ होता है तो अपने सपनों, हौसलों और आदर्शों को मूर्त रूप देने की कशिश ही उसका दृढ़ संकल्प होता है और इसे सफल बनाने में उसकी प्रतिभा, प्रशिक्षण और प्रेक्टिकल एक्सपोज़र बहुत काम आते हैं.
आत्मलोचन जी के इरादे टीएमटी सरिया के समान बचपन से ही मजबूत थे और बहुत जल्द सबको समझ आ गया कि साहब कड़क हैं और वही होता है जो साहब ठान लेते हैं. पर कलेक्टर का पद सुशोभित करने के बावजूद कलेक्टर कक्ष की कुर्सी साहब को रास नहीं आ रही थी तो उनकी पसंद के अनुसार दो नई कुर्सियां आर्डर की गई एक जिस पर आत्मलोचन जी ऑफिस में सुशोभित हुये और दूसरी उनके बंगले पर उनके (work from home too) के लिये भेजी गई.
क्रमशः…
© अरुण श्रीवास्तव
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