श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। )

आज प्रस्तुत है एक विचारणीय व्यंग्य – जिजिविषा के बन्द पन्ने. इस आलेख में वर्णित विचार लेखक के व्यक्तिगत हैं जिन्हें सकारात्मक दृष्टिकोण से लेना चाहिए।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 158 ☆

? व्यंग्य – जिजिविषा के बन्द पन्ने  ?

निज़ाम-ए-मय-कदा साक़ी बदलने की ज़रूरत है

हज़ारों हैं सफ़े जिन में न मय आई न जाम आया

रफ कापी मतलब पीरियड किसी भी विषय का हो, नोट्स जिस कापी में लिखे जाते थे, वह महत्वपूर्ण दस्तावेज एक अदद रफ कापी हुआ करती थी जैसे गरीब की लुगाई गांव की भौजाई होती है. फिर भी रफ कापी अधिकृत नोटबुक नही मानी जाती.

छुट्टी के लिये आवेदन लिखना हो तो रफ कापी से ही बीच के पृष्ठ सहजता से निकाल लिये जाते थे, मानो सरकारी सार्वजनिक संपत्ति हो. रफ कापी के पेज फाड़कर ही राकेट, नाव और कागज के फ्लावर्स बनाकर ओरोगामी सीखी जाती थी.  यह रफ कापी ही होती थी, जिसके अंतिम पृष्ठ में नोटिस बोर्ड की महत्वपूर्ण सूचनायें एक टांग पर खड़े होकर लिखी जाती थीं.

रफ कापी में ही कई कई बार लाइफ रिजोल्यूशन्स लिखे जाते थे, परीक्षायें पास आने लगती तो डेली रूटीन लिख लिख कर हर बीतते दिन के साथ बार बार सुधारे जाते थे. टीचर के व्याख्यान उबाऊ लग रहे होते  तो रफ कापी ही क्लास में दूर दूर बैठे मित्रो के बीच लिखित संदेश वाहिका बन जाती थी, उस जमाने में न तो हर हाथ में मोबाइल थे और न एस एम एस, व्हाट्स एप की चैटिंग.

उम्र के किशोर पड़ाव पर रफ कापी के पृष्ठ पर ही पहला लव लेटर भी लिखा था, यदि ताजमहल भगवान शिव का पवित्र मंदिर नही, प्रेम मंदिर ही है तो  चिंधी में तब्दील वह सफा, हमारे ताज बनाने की दास्तां से पूर्व उसकी स्वयम की गई भ्रूण हत्या थी. कुल मिलाकर रफ कापी हमारी पीढ़ी  का बेहद महत्वपूर्ण दस्तावेज रहा है. शायद जिंदगी का पहला  व्यंग्य भी रफ कापी पर ही लिखा था  मैंने.

नोट्स रि राइट करने की अपेक्षा  रफ कापी के वे पन्ने जो सचमुच रफ वर्क के होते उन्हें स्टेपल कर रफ वर्क को दबा कर फेयर कापी में तब्दील करने की कला हम समय के साथ सीख गये थे. जब रफ कापी के कवर की दशा दुर्दशा में बदल जाती और कापी सबमिट करनी विवशता हो तो नया साफ सु्थरा ब्राउन कवर चढ़ा कर निजात मिल जाती. नये कवर में पुराना माल ढ़ंका, मुंदा बन्द बना रहता. बन्द सफों और ढ़ंके कवर को खोलने की जहमत कोई क्यों उठाता.

इस ढ़ांकने, मूंदने, अपनी गलतियों को छुपा देने,  के मनोविज्ञान को नेताओ ने भली भांति समझा है, रफ कापी में टाइम पास के लिए हाशिये पर गोदे गये चित्र  इतिहास और मनोविज्ञान के समर्थ अन्वेषी साधन हैं.

बरसों से सचाई की खोज महज शोधकर्ताओ की थीसिस या किसी फिल्म का मटेरियल मात्र मानी जाती रही है.

तभी तो आजाद भारत में भी किसी को ताजमहल के तलघर के बन्द कमरों, या स्वामी पद्मनाभ मंदिर के गुप्त खजाने के महत्वपूर्ण इतिहास को खोजने में किसी की गंभीर रुचि नही रही. मीनार पर मीनार, गुम्बद पर गुम्बद की सचाई को ढ़ांके, नये नये कवर चढ़े हुये हैं.

लम्बी अदालती कार्यवाहियों के स्टेपल, जांच कमेटियों की गोंद, कमीशन रिपोर्ट्स के फेवीकाल, कानून के उलझे दायरों के मुडे सिले क्लोज्ड पन्नो में  बहमत के सारे मनोभाव, कौम की  सचाई छिपी है. वोट दाता नाराज न हो जाएं सो उनके तुष्टीकरण के लिये देश की रफ कापी के ढेरों पन्ने चिपका कर यथार्थ छिपाई जाती रही है. शुतुरमुर्ग की तरह सच को न देखने से सच बदल तो नही सकता, पर यह सच बोलना भी मना है.

पर आज  नोटबुक के सारे जबरदस्ती  बन्द रखे गए पन्ने फडफड़ा रहे हैं  उन्हें सिलसिलेवार समझना होगा क्योंकि अब मैं समझ रहा हूं कि रफ कापी के वे स्टेपल्ड बन्द पन्ने केवल रफ वर्क नहीं सच की फेयर डायरी है । जिनमें  दर्ज है पीढ़ी की जिजिविषा, तपस्या, निष्ठा और तत्कालीन बेबसी की दर्दनाक पीड़ा.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

image_print
5 1 vote
Article Rating

Please share your Post !

Shares
Subscribe
Notify of
guest

2 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments
Dr. Priya Sufi

Awesome thought

प्रशान्त

बहुत बढ़िया रचना। बंद पन्नों की ओर ध्यानाकर्षण के लिए साधुवाद। सच है कि रफ कॉपी के सफे यूँ ही तो रफा दफा नहीं किए जा सकते। मगर कच्ची कॉपी को पक्की कॉपी मानना कच्ची गोलियाँ खेलने जैसा भी हो सकता है। निदा फ़ाज़ली जी की इन पंक्तियों पर गौर तो करना होगा कि:
किस राह से बचना है, किस छत को भिगोना है।