डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित आपका एक अतिसुन्दर विचारणीय व्यंग्य  ‘एक धार्मिक जुलूस’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 142 ☆

☆ व्यंग्य – एक धार्मिक जुलूस

धार्मिक जुलूस निकलने को है। सूचनाएँ स्थानीय अखबारों में निकल चुकी हैं। जुलूस के नेताओं की अपीलें भी निकल चुकी हैं कि सब लोग सहयोग देकर धर्म को पुख़्ता करें और शांति बनाए रखें। धार्मिक जुलूसों के वक्त शांति बनाए रखने की अपील ज़रूरी होती है क्योंकि धर्म की शांति से पटरी बैठती नहीं। हमेशा शांति-भंग का ख़तरा रहता है। जुलूस के नेताओं में भी ज़्यादातर वे हैं जिन्हें जुलूसों और और तेज़-तर्रार वक्तव्यों को छोड़कर सच्चे अर्थों में धर्म से कुछ लेना-देना कम ही होता है। अब लोग धार्मिक कम हैं, धर्म के ठेकेदार ज्यादा हैं।

जुलूस को लेकर पूरे प्रशासन की जान हलक में है। महीना भर पहले से बैठकें हो रही हैं। धर्म के ठेकेदारों को बुलाकर मशवरा लिया जा रहा है कि भैया, ऐसा करो कि काम शांति से निपट जाए। धार्मिक नेताओं के भाव ऊँचे हैं। जुलूस किस रास्ते से जाए, इसे लेकर मान- मनौव्वल हो रहा है। ठेकेदार और उनके छुटभैये ज़िद करते हैं, ‘नहीं साहब, जुलूस तो उसी रास्ते से निकलेगा,चाहे कुछ भी हो जाए।’ बात यह है कि जुलूस निकालने वालों का काम जुलूस निकालना है। अमन बनाये रखने का ठेका प्रशासन का है। जुलूस तो ज़रूर निकलेगा, लेकिन अगर कोई गड़बड़ी हो जाए तो उचक कर प्रशासन की गर्दन थाम लो। फिर इंक्वायरी हो और फिर अंत में कोई बेचारा गरीब कांस्टेबल बलि का बकरा बना कर लाइन अटैच कर दिया जाए।

प्रशासन सब काम छोड़कर जुलूस की फिक्र में लगा है। बाकी सब काम बन्द। कोई आला अफसर अभी नहीं मिलेगा क्योंकि साहब अभी जुलूस वाली मीटिंग में हैं। जिसको कोई काम कराना हो वह जुलूस निकल जाने तक रुके,  चाहे काम जीवन-मरण का ही क्यों ना हो। जुलूस निकलने तक ज़िंदा रह सकते हो तो ठीक है, नहीं तो हरि इच्छा।
            ज़िले के सब हिस्सों से पुलिस की टुकड़ियाँ  बुलायी जा रही हैं क्योंकि धार्मिक जुलूस निकलना है। जहाँ पुलिस कम हो गयी है वहाँ तथाकथित असामाजिक तत्वों के हौसले कुछ ऊँचे हुए हैं और शांतिप्रिय भद्र लोगों के हौसले गिरे हैं, क्योंकि भद्र लोगों की भद्रता पुलिस के भरोसे ही कायम है।

शहर में असामाजिक तत्वों की धरपकड़ हो रही है ताकि जुलूस शांति से निकल जाए। जो  समझदार असामाजिक तत्व हैं वे पहले ही रिश्तेदारों के यहाँ चले गये हैं क्योंकि हर धार्मिक जुलूस के समय उन्हें सरकार की मेहमानदारी कबूल करनी पड़ती है। वैसे असामाजिक तत्वों में सिर्फ ऐरे-ग़ैरे-नत्थू-ख़ैरे ही आते हैं जिनका कोई माई-बाप नहीं होता। जिनके पास माल है या जिनका कोई धर्मपिता होता है वे असामाजिक तत्वों की फ़ेहरिस्त में नहीं आते।

पुलिस और प्रशासन जुलूस के पूरे रास्ते का निरीक्षण करते हैं। कहाँ-कहाँ फोर्स लगायी जाए, कहां निरीक्षण-मीनारें बनें, कहां एस.पी. साहब बैठें और कहाँ डी.आई.जी. साहब। रिज़र्व फोर्स कहाँ रहे, जो गड़बड़ी होते ही दौड़ पड़े। अश्रुगैस का पर्याप्त प्रबंध रहे।

जुलूस निकल रहा है। पुलिस अफसर जैसे उन्माद में हैं। कोई भी इधर-उधर दौड़ता- भागता दिखता है कि लाठी भाँजते दौड़ते हैं। जनता उत्सव के मूड में है, लेकिन प्रशासन के प्राण चोटी में हैं।

जुलूस एक-एक इंच  सरक रहा है और प्रशासन को एक-एक इंच सफलता मिल रही है। तनाव एक-एक इंच घट रहा है। कंट्रोल रूम को एक-एक क्षण की सूचना मिल रही है। जुलूस के लोग धर्मोन्माद में झूम रहे हैं, गा रहे हैं और प्रशासन असली धर्मपरायण की तरह राम और ख़ुदा को याद कर रहा है।

अंततः जुलूस ख़त्म हो गया है। लोग आखिरी जय-जयकारों के बाद बिखरने लगे हैं। जुलूस के नेताओं के चेहरे गौरवमंडित हैं। जब आखिरी जत्था भी चला जाता है तो प्रशासन ईश्वर को धन्यवाद देता है।

फिर प्रशासन के लोग एक दूसरे को बधाइयाँ देते हैं। ‘बधाई सर, सब ठीक-ठाक निपट गया।’ प्रदेश की राजधानी को प्रसन्नता भरे संदेश जाते हैं कि जुलूस शांतिपूर्वक निपट गया। राजधानी में भी बड़े लोग ठंडी साँस लेते हैं। अफसर घर लौट कर यूनिफॉर्म उतारते हुए तनावग्रस्त पत्नी को सूचना देते हैं कि सब काम ठीक से निपट गया,और पत्नी छत की तरफ आँखें उठाकर साड़ी का पल्लू आँखों से लगाती है।कारण यह है कि जुलूस अफसर को लाइन अटैच से लेकर सस्पेंड तक करा सकता है। इसलिए सही- सलामत घर लौटना भारी सुखकर होता है।

जुलूस ख़त्म हो गया है। अब बेचारे छोटे असामाजिक तत्व इस प्रतीक्षा में हैं कि हुकुम जारी हो तो वे सरकारी मेहमानख़ाने से बाहर आयें  और अगले जुलूस तक खुली हवा का सेवन करें।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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