डॉ कुन्दन सिंह परिहार
☆ व्यंग्य – बड़ा आदमी साइकिल पर ☆
मगन बाबू ख़ानदानी रईस हैं, वैसे ही जैसे हम ख़ानदानी मामूली आदमी हैं। वे विशाल भवन, पन्द्रह-सोलह कारों और दीगर संपत्ति के स्वामी हैं।
मौजी तबियत के आदमी हैं। नौकरों और परिवार के सदस्यों से उनकी चुहलबाज़ी चलती है। तुफ़ैल मियाँ उनके ख़ास मुँहलगे नौकर हैं। वे जब-तब तुफ़ैल मियाँ के पेट में गुदगुदी मचाते रहते हैं और तुफ़ैल मियाँ नाराज़ी का अभिनय करते, शरीर को टेढ़ा-मेढ़ा करते रहते हैं। एकान्त पाकर मगन बाबू तुफ़ैल मियाँ को कुछ ‘जनता छाप’ गालियाँ भी देते हैं। तुफ़ैल मियाँ ऊपर से ग़ुस्से का प्रदर्शन करते हुए भीतर-भीतर गदगद होते रहते हैं।
उस दिन मगन बाबू अधिक ही मौज में थे। न जाने क्या सूझी कि उन्होंने दीवार से टिकी तुफ़ैल मियाँ की साइकिल एकाएक उठायी और सवार होकर पैडल मारते हुए बंगले के गेट से बाहर निकल गये।
बंगले में तहलका मच गया— ‘बाबूजी साइकिल पर बैठकर निकल गये’, ‘मगन बाबू साइकिल पर बाहर चले गये।’ भारी दौड़-धूप शुरू हो गयी। तुफ़ैल मियाँ चप्पलें फेंककर पीछे-पीछे दौड़े। तीन-चार सेवक और दौड़े। तुरन्त दो कारें गैरेज से निकलीं और बाबूजी की तलाश में दौड़ पड़ीं। मगन बाबू की माताजी ऊपर से उतरकर लॉन में परेशान घूमने लगीं। बंगले के सारे प्राणी नाना प्रकार की वेशभूषा में लॉन पर जमा होकर उत्सुकता से ख़बर का इन्तज़ार करने लगे।
मगन बाबू उस समय पैडल मारते हुए बाज़ार से गुज़र रहे थे। पीछे-पीछे चार-पाँच नौकर ‘बाबूजी’ ‘बाबूजी’ चिल्लाते उनके पीछे भाग रहे थे। तुफ़ैल मियाँ उन्हें अपने सर की कसम देते दौड़ रहे थे। लेकिन मगन बाबू मौज में दाहिने-बायें सिर हिलाते बढ़ते जा रहे थे।
बाज़ार के लोग यह कौतुक देख देखकर दूकानों के सामने जमा हो रहे थे। मगन बाबू को सब जानते थे। जो नहीं जानते थे वे दूसरों से पूछ रहे थे, ‘यह क्या है भाई?’ जानकार हँसकर सिर हिलाते, कहते, ‘वे मगन बाबू हैं न? साइकिल पर निकल पड़े हैं। मौजी आदमी हैं। ‘जो मगन बाबू से ज़्यादा परिचित थे,वे उन्हें सम्बोधन करके ‘वाह बाबू साहब’ ‘वाह बाबू साहब’ कह रहे थे। मगन बाबू के इस कौतुक ने पूरे बाज़ार में मौज और दिल्लगी का वातावरण बना दिया था। जहाँ देखो वहाँ ‘मगन बाबू भी क्या हैं!’, ‘मगन बाबू भी खूब हैं!’ सुनायी पड़ रहा था।
साइकिल की रफ़्तार थोड़ी धीमी होते ही तुफ़ैल मियाँ और दूसरे सेवकों ने उनके पास पहुँचकर साइकिल को थाम लिया। तब तक एक कार भी आ पहुँची। मगन बाबू को साइकिल से उतारकर कार में बैठाया गया। बाज़ार वालों की अच्छी-ख़ासी भीड़ उनके इर्दगिर्द जमा हो गयी थी। ‘अरे वाह रे बाबू साहब!’ ‘धन्य हो बाबू साहब!’ की टिप्पणियाँ चल रही थीं। मगन बाबू मन्द मन्द हँस रहे थे।
कार के बंगले में दाख़िल होने पर मगन बाबू बाहर निकलकर लॉन में आरामकुर्सी पर फैल गये। उनकी माताजी विह्वल भाव से उनके शरीर पर हाथ फेरने लगीं। बंगले के सब छोटे-बड़े उन्हें घेरकर खड़े हो गये। उलाहने के स्वर में टिप्पणियाँ आ रही थीं, ‘कुछ तो सोचना चाहिए’, ‘कुछ हो जाता तो?’, ‘बड़ी बेफिक्र तबियत के हैं’, वगैरः वगैरः। तुफ़ैल मियाँ कह रहे थे, ‘अबकी बार आप ऐसा करके देखिए, लौट के मुझे ज़िन्दा न पाएंगे। ‘ माताजी कह रही थीं, ‘तू क्यों हमको इतना सताता है रे? सब दिन बच्चा ही बना रहेगा? छः बच्चों का बाप बन गया, कुछ तो समझ से काम ले।’ और मगन बाबू आँखें बन्द किये मन्द-मन्द मुस्कराए जा रहे थे।
बंगले के भीतर उनकी पुत्री अपने चाचा से फ़ोन पर बात कर रही थी—-‘आज साइकिल से निकल पड़े। आफत मच गयी थी। बिलकुल ठीक हैं। कुछ नहीं हुआ। मानते नहीं हैं न। कुछ न कुछ मज़ाक करते ही रहते हैं।’
© डॉ कुंदन सिंह परिहार
जबलपुर, मध्य प्रदेश