(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। )
आज प्रस्तुत है एक विचारणीय व्यंग्य – कांच के शो रूम में शो।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 163 ☆
☆ व्यंग्य – कांच के शो रूम में शो ☆
राम भरोसे बड़ा प्रसन्न था। कारण जानना चाहा, तो पता चला कि उसे सूचना का अधिकार मिल गया है। अर्थात् अब सब कुछ पारदर्शी है। यूं तो ’इस हमाम में हम सब नंगे है’, पर अब जो नंगे न हों, उन्हे नंगे करने का हक भी हम सब के पास है। वैसे झीना-पारदर्शीपन, कुछ कुछ सेक्स अपील से संबंधित प्रतीत होता है, पर यह पारदर्शीता उस तरह की नहीं है। सरकारी पारदर्शिता के सूचना के अधिकार के मायने ये हैं, कि कौन क्या कर रहा है, क्यों कर रहा है, कैसे कर रहा है? यह सब, सबके सामने उजागर होना चाहिये। मतलब ये नहीं कि कोई तो ’राम भरोसे’ हो, और कोई ’सुखी राम’ बन जाये। कोई ’रामसिंग’ हो और कोई ’दुखीराम।’ कोई ’राम लाल’ तो और कोई कालू राम बनकर रह जावे- जब सब राम के बंदे हैं, तो सबको बराबर के अधिकार हैं। सबकों पता होना चाहिये कि उनके वोट से चुनी गई सरकार, उन्हीं के बटोरे गये टैक्स से उनके लिये क्या काला-सफेद कर रही है। सीधे शब्दों में अब सब कांच के घरों में बैठे हैं। वैसे इसका भावार्थ यह भी है कि अब कोई किसी पर पत्थर न उछाले। मजे से कांच की दीवारों पर रेशमी पर्दे डालकर ए.सी. की ठंडी बयार में अफसर बियर पियें, नेता चाहें तो खादी के पर्दे डाल कर व्हिस्की का सेवन कर सकते हैं। रामभरासे को सूचना का अधिकार मिल गया है। जब उसे संदेह होगा कि कांच के वाताकूलित चैम्बर्स तक उसकी आवाज नहीं पहुंच पा रही है, तो यथा आवश्यकता वह, पूरे विधि विधान से अर्जी लगाकर परदे के भीतर का आँखों देखा हाल जानने का आवेदन लगा सकेगा। और तब, यदि गाहे बगाहे उसे कुछ सच-वच जैसा, मालूम भी हो गया, तो कृष्ण के अनुयायी माखन खाने से मना कर सकते हैं। यदि टी.वी. चैनल पर सरासर कोई फिल्म प्रसारित भी हो जावे, तो उसे फर्जी बताकर, अपनी बेकसूरी सिद्ध करते हुये, एक बार पुनः लकड़ी की कढ़ाई चूल्हे पर चढ़ाने का प्रयास जारी रखा ही जा सकता है।
© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈