हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण # 113 ☆ पढ़ाकू गोंड कन्या – 6 ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆

श्री अरुण कुमार डनायक 

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.

श्री अरुण कुमार डनायक जी ने अपनी सामाजिक सेवा यात्रा को संस्मरणात्मक आलेख के रूप में लिपिबद्ध किया है। आज प्रस्तुत है इस संस्मरणात्मक आलेख श्रृंखला की अगली कड़ी – “पढ़ाकू  गोंड कन्या”)

☆ संस्मरण # 113 – पढ़ाकू  गोंड कन्या – 6 ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

मैँ जब-जब पोड़की स्थित मां सारदा कन्या विद्यापीठ के अतिथि गृह में ठहरा, वहाँ के भोजनालय में भोजन करने गया, तो मैंने एक श्याम वर्णा, चपल व चौड़े माथे वाली छरहरी युवती को अवश्य देखा। वह मेरा मुस्कराकर अभिवादन करती, पूंछती ‘दादाजी कैसे हो ?’ यह युवती दिन में तो दिखाई नहीं देती पर सुबह और शाम सेवाश्रम में अवश्य मिलती। लेकिन जब फरवरी 2022  के मध्य  में मैं पुन: सेवाश्रम गया तो चंचल स्वभाव की वह युवती मुझे दिखाई नहीं दी। मैंने वहाँ के शिक्षक प्रवीण कुमार द्विवेदी से उसके विषय में पूँछा तो पता चला वह भुवनेश्वरी थी।  और एक दिन द्विवेदी जी उसे मुझसे मिलवाने ले ही आए।

अमरकंटक के मूल निवासी गोंड आदिवासी परिवार में जन्मी भुवनेश्वरी, समीपस्थ ग्राम धरहरकलां की निवासी है। उसके पिता मानसिंह गोंड पाँचवी तक पढे हैं व माता जयमती बाई अनपढ़ हैं। वह याद करती है कि पूरा गाँव लगभग अनपढ़ ही था, केवल प्राथमिक शाला के शिक्षक राम सिंह मरावी ही शिक्षित थे और वही ग्रामीणों को शिक्षा की प्रेरणा देते, सभी लोग उनकी सलाह को मानते थे। जब वर्ष 1999 में भुवनेश्वरी पाँच वर्ष की हुई तब उसके पिता ने मरावी मास्टर साहब  प्रेरणा से विद्यापीठ में उसका प्रवेश करवा दिया।  शुरू में तो उसे स्कूल का अनुशासन रास  नहीं आया, गृह ग्राम की नन्ही सखियाँ याद आती और माँ की ममता को यादकर वह बहुत बिसुरती। ऐसे समय में बड़ी बहनजी और बड़ी कक्षा की छात्राएं उसे पुचकारती और मन बहलाती। धीरे-धीरे आश्रम में अच्छा लगने लगा और पढ़ना लिखना मन को भाने लगा।

एक अत्यंत गरीब परिवार में जन्मी भुवनेश्वरी ने, जिसके पिता अपने खेत में हाड़ तोड़ मेहनत कर केवल पेट भरने लायक अन्न उपजा पाते, सातवीं कक्षा माँ सारदा कन्या विद्यापीठ से उत्तीर्ण की और भेजरी स्थित उच्चतर माध्यमिक विद्यालय बारहवीं की परीक्षा पास की तो माता पिता को इस अठारह वर्षीय युवती के विवाह की चिंता सताने लगी। लेकिन भुवनेश्वरी तो आगे पढ़ने की इच्छुक थी और ऐसे में आदिवासी बालिकाओं के तारणहार बाबूजी उसकी मदद को आगे आए। बाबूजी और बहनजी ने सेवाश्रम के छात्रावास में उसके रहने-खाने की व्यवस्था कर दी और इंदिरा गांधी राष्ट्रीय जनजाति विश्वविद्यालय में उसे प्रवेश दिलवा दिया। यहाँ की निशुल्क शिक्षा व्यवस्था का लाभ लेकर भुवनेश्वरी ने पहले संग्रहालय विज्ञान विषय लेकर स्नातक परीक्षा में सफलता हासिल की और फिर जनजातीय अध्ययन विषय में स्नातकोत्तर परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास की। सेवाश्रम में पढ़ने वाली नन्ही आदिवासी बालिकाओं की भुवी दीदी ने आगे पढ़ने की सोची और अमरकंटक स्थित कल्याणीका महाविद्यालय से बीएड  भी 89% अंकों के साथ उत्तीर्ण कर लिया।

आजकल भुवनेश्वरी अमरकंटक क्षेत्र के बिजुरी ग्राम स्थित निजी विद्यालय में शिक्षिका है और उसका मासिक वेतन पाँच हजार रुपये से भी कम है। मैंने कहा ‘यह तो शोषण है और  इतने कम  वेतन से संतुष्ट हो क्या ?’  जवाब मिला ‘नहीं! पर मजबूरी है। सरकारी नौकरी के लिए आवेदन किया है पर अभी तक प्रक्रिया शुरू नहीं हुई। बड़े शहरों के निजी स्कूलों में जहां वेतन अच्छा मिलता है हम काले आदिवासियों को, जिन्हें अंग्रेजी में गिटिर-पिटिर करना नहीं आता,   कौन भर्ती करेगा।‘

डाक्टर सरकार की याद करते हुए उसकी आंखे नम हो जाती है। उसे आज भी विद्यापीठ की छात्रा के रूप में बनारस और जगन्नाथ पुरी की यात्राओं  की याद है। वह बताती है कि इन  यात्राओं के दौरान बाबूजी हम बच्चों को एक दिन किसी अच्छे होटल में, यह कहते हुए, जरूर भोजन करवाते कि इससे बच्चों की झिझक दूर होगी। भुवनेश्वरी को आज भी याद है जब करिया मुंडा लोकसभा के उपाध्यक्ष थे और अमरकंटक आए तब बाबूजी ने उन्हे विद्यापीठ आमंत्रित किया था। करिया मुंडा से विद्यापीठ की पूर्व छात्रा गुलाबवती बैगा ने संभाषण किया और फर्रीसेमर की पाँचवी तक पढ़ी लाली बैगा ने उन्हें स्थानीय बैगा आदिवासियों की संस्कृति से परिचित कराया और इसके लिए दोनों को बाबूजी ने बखूबी प्रशिक्षित किया था।

जब मैंने उसकी अन्य बहनों की पढ़ाई लिखाई के बारे में पूछा तो उसने बताया कि चार बहने इसी विद्यापीठ से पढ़कर निकली हैं। एक बहन ने तो बीएससी तक की शिक्षा ग्रहण की और नृत्य, गीत-संगीत व चित्रकला में निपुण सबसे छोटी बहन यमुना अब शासकीय उत्कर्ष उच्चतर माध्यमिक विद्यालय अनूपपुर में दसवीं की छात्रा है।

मैंने उससे शादी विवाह पर विचार पूछे। बिना शरमाये भुवनेश्वरी ने उत्तर दिया पहले नौकरी खोजेंगे, अपने पैरों पर खड़े होकर बाबूजी का सपना पूरा करेंगे फिर शादी की सोचेंगे। वह कहती है कि अमरकंटक क्षेत्र के  आदिवासी युवा शिक्षित तो हो गए  हैं पर बेरोजगारी के चलते उनमें गाँजा की चिलम फूकने का चलन बढ़ा है और फिर मद्यपान तो आदिवासी छोड़ना ही नहीं चाहते। गैर आदिवासी समुदाय की देखादेखी में दहेज का चलन गोंड़ों में बढ़ा है और इससे नारी प्रताड़ना के मामले भी अब बढ़ रहे हैं। वह ऐसा जीवन साथी चाहती है जिसमें नशा जैसे दुर्गुण नहीं हों। वह कहती हैं कि शिक्षा से जागरूकता तो बढ़ी है पर कुछ बुराइयाँ भी आदिवासियों में आ गई हैं। वह इन बुराइयों की  खिलाफत  करने में स्वयं को अकेला पाती है।  

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈