श्री संतोष नेमा “संतोष”
(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत हैं “संतोष के दोहे… ”। आप श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)
☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 127 ☆
☆ संतोष के दोहे ☆ श्री संतोष नेमा ☆
नशा कभी मत कीजिये, यह अवगुण की खान
बुरा असर परिवार पर, गिरे मान सम्मान
लाभ न होता है कभी, धन जाता बेकार
रोष बढ़ाता है यही, जबरन कर तकरार
दारू गुटखा, पान अरु, पीते खूब शराब
हासिल कुछ होता नहीं, जीवन करे खराब
नव युवक हैं गिरफ्त में, बुरा नशे का जाल
गांजा, हीरोइन, चरस, करे अफीम कमाल
मद से ग्रसित न हों कभी, करता सबसे दूर
पद,दौलत सत्ता सभी, मद में करते चूर
मन कुंठित तन खोखला, लगें अनेकों रोग
बदले नजर समाज की, समझें सारे लोग
घर में बढ़ती है कलह, छोड़ नशे की राह
खुशहाली आये तभी, यही सभी की चाह
नशा मौत सम समझिए, होता जहर समान
बिक जाते घर-द्वार भी, धन-दौलत सम्मान
हरता बुद्धि विवेक भी, करता यह कमजोर
कुछ नशेड़ी स्वयं ही, घर में बनते चोर
दूर रहें सब नारियाँ, नशा पाप का मूल
देता है अपमान, दुख, सोना करता धूल
कला और साहित्य का, खूब करें विस्तार
तन-मन हो संगीतमय, झंकृत मन के तार
ध्यान-योग निश दिन करें, गर चाहें “संतोष”
बचकर रहें प्रमत्त से, यह जीवन का कोष
© संतोष कुमार नेमा “संतोष”
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