(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं।
आज प्रस्तुत है लेखक… प्रभात गोस्वामी के व्यंग्य संकलन “ऐसा भी क्या सेल्फियाना ” की समीक्षा।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 111 ☆
☆ “ऐसा भी क्या सेल्फियाना (व्यंग्य संकलन)” … लेखक… श्री प्रभात गोस्वामी ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
पुस्तक चर्चा
ऐसा भी क्या सेल्फियाना (व्यंग्य संकलन)
लेखक… प्रभात गोस्वामी
प्रकाशक.. किताब गंज प्रकाशन, गंगापुर सिटि
मूल्य २०० रु, पृष्ठ १३६
चर्चाकार.. विवेक रंजन श्रीवास्तव
प्रभात गोस्वामी का तीसरा व्यंग्य संग्रह ऐसा भी क्या सेल्फियाना पढ़ने का अवसर मिला. चुटीले चालीस व्यंग्य आलेखों के साथ समकालीन चर्चित सोलह व्यंग्यकारो की प्रतिक्रियायें भी किताब में समाहित हैं. ये टिप्पणियां स्वयमेव ही पुस्तक की और प्रभात जी के व्यंग्य कर्म की समीक्षायें हैं. प्रभात गोस्वामी कि जो सबसे बडी खासियत पाठक के पक्ष में मिलती है वह है उनका विषयों का चयन. वे पाठकों की रोजमर्रा की जिंदगी के आजू बाजू से मनोरंजक विषय निकाल कर दो तीन पृष्ठ के छोटे से लेख में गुदगुदाते हुये कटाक्ष करने में माहिर हैं. ऐसा भी क्या सेल्फियाना लेख के शीर्षक को ही किताब का शीर्षक बनाकर प्रकाशक ने साफ सुथरी त्रुटि रहित प्रिंटिग के साथ अच्छे गेटअप में किताब प्रकाशित की है. सेल्फी के अतिरेक को लेकर कई विचारशील लेखकों ने कहीं न कही कुछ न कुछ लिखा है. मैंने अपने एक व्यंग्य लेख में सेल्फी को आत्मनिर्भरता का प्रतीक बतलाया है. प्रभात जी ने सेल्फी की आभासी दुनियां और बाजार की मंहगाई, सेल्फी लेने की आकस्मिक आपदाओ,किसी हस्ती के साथ सेल्फी लेने का रोचक वर्णन, अपने क्रिकेट कमेंटरी के फन से जोड़ते हुये किया हैं. किन्तु जीवन यथार्थ के धरातल पर चलता है, सोशल मीडीया पर पोस्ट की जा रही आभासी सेल्फी से नहीं, व्यंग्य में इसका आभास तब होता है जब भोजन की जगह पत्नी व्हाट्सअप पर आभासी थाली फारवर्ड कर देती हैं. इस व्यंग्य में ही नहीं बल्कि प्रभात जी के लेखन में प्रायः बिटविन द लाइन्स अलिखित को पढ़ने, समझने के लिये पाठक को बहुत कुछ होता है.
इसी तरह एलेक्सा तुम बतलाओ कि हम बतलायें क्या भी छोटा सा कथा व्यंग्य है. लेखक जेंडर इक्विलीटी के प्रति सतर्क है, वह तंज करता है कि एलेक्सा और सीरी से चुहल दिलजलों को बर्दाश्त नहीं, वे इसके मेल वर्जन की मांग करते हैं. व्यंग्य के क्लाइमेक्स में नई दुल्हन एलेक्सा को पति पत्नी और वो के त्रिकोण में वो समझ लेती है और पीहर रुखसत कर जाती है. प्रभात जी इन परिस्थितियों में लिखते हैं एलेक्सा तुम बतलाओ कि हम बतलायें क्या, और पाठक को घर घर बसते एलेक्सा के संसार में थोड़ा हंसने थोड़ा सोचने के लिये विवश कर देते हैं
रचना चोरों के लिये साहित्यिक थाना, पहले प्यार सी पहली पुस्तक, आओ हुजूर तुमको, दो कालम भी मिल न सके किसी अखबार में जैसे लेख प्रभात जी की समृद्ध भाषा, फिल्मी गानों में उनकी अभिरुचि और सरलता से अभिव्यक्ति के उनके कौशल के परिचायक हैं.
कुल जमा ऐसा भी क्या सेल्फियाना मजेदार पैसा वसूल किताब है.
चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३
मो ७०००३७५७९८
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈