श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”
संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी के साप्ताहिक स्तम्भ “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।
मनोज साहित्य # 40 – मनोज के दोहे ☆
संविधान से झाँकती, मानवता की बात।
दलगत की मजबूरियाँ, कर जातीं आघात।।
शांति और सौहार्द से, आच्छादित वेदांत।
धर्म ध्वजा की शान यह, सदा रहा सिद्धांत।।
आभा बिखरी क्षितिज में,खुशियों की सौगात।
नव विहान अब आ गया, बीती तम की रात।।
मन ओजस्वी जब रहे, कहते तभी मनोज।
सरवर के अंतस उगें, मोहक लगें सरोज।।
देवों की आराधना, करते हैं सब लोग।
कृपा रहे उनकी सदा, भगें व्याधि अरु रोग।।
दिल से बने अमीर सब, कब धन आया काम।
नहीं साथ ले जा सकें, होती है जब शाम।।
महल अटारी हों खड़ीं, दिल का छोटा द्वार।
स्वार्थ करे अठखेलियाँ, बिछुड़ें पालनहार।।
छोटा घर पर दिल बड़ा, हँसी खुशी कल्लोल ।
जीवन सुखमय से कटे, जीवन है अनमोल ।।
माँ की ममता ढूँढ़ती, वापस मिले दुलार।
वृद्धावस्था की घड़ी, सबके दिल में प्यार।।
वृद्धाश्रम में रह रहे, कलियुग में माँ बाप।
सतयुग की बदली कथा, यही बड़ा अभिशाप।।
नई सदी यह आ गई, जाना है किस ओर।
भ्रमित हो रहे हैं सभी, पकड़ें किस का छोर।।
© मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”
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