श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “टीम वर्क: मिले जो कड़ी- कड़ी”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।
आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 107 ☆
☆ टीम वर्क: मिले जो कड़ी- कड़ी ☆
सबको साथ लेकर चलने का कौशल जिसको आ गया उसे सब कुछ आ जायेगा। जोड़- तोड़ को साधते हुए जीवन जीने की कला में ही सच्चा आनन्द है। कोई न कोई कार्य होते रहना चाहिए। किसी भी कीमत पर जीतना है। बस इसी मूल मन्त्र के साथ कभी इसको हटाना कभी उसको। बहार और पतझड़ दोनों ही जीवन के हिस्से हैं। वक्त बदलता है; कहते हैं जब वक्त की मार पड़ती है तो अच्छे- अच्छे भी सीधे हो जाते हैं।
उसूलों से समझौता न करने की कीमत चुकानी ही पड़ती है। जिसने दर्द के साथ जीना सीख लिया वो तो चुपचाप रह जाता है किंतु जब विरोधियों के स्वर मुखरित होते हैं तो कड़ी से कड़ी जुड़ते देर नहीं लगती।एक जैसी विचारधारा के लोग आगे आकर नवल सोच को अंजाम देते हैं। मिलकर चलना अच्छा है पर कितनी दूरी तय करेंगे ये सबसे बड़ी बात है। जहाँ मन से मन मिलते हैं वहाँ रहना तो आसान होता है परंतु लक्ष्य की साधना कितनी होगी इसका उत्तर अनुत्तरित ही रह जाता है। बंधन सदैव सुखकारी हों ऐसा नहीं कहा जा सकता है, कभी – कभी सिरदर्द बनकर बैचेन करने लगते हैं।
साझा कार्यक्रम ही जुड़ने की वजह बनता है। जो आज साथ है वो कल भी रहेगा ऐसा नहीं कहा जा सकता है। आवश्यकता ही हमें एक पटरी पर लाकर खड़ा करती है। वैचारिक मतभेद कब मनभेद में बदल जाएंगे पता ही नहीं चलता। उम्मीदें किसी से भी उतनी करो जितनी निभाई जा सकें। बिना मतलब के झगड़े से कोई फायदा नहीं। लोकतंत्र में सही अर्थों में संख्या बल के महत्व का पता चलता है। कई बार तो निर्दलीय प्रत्याशी ही तुरुप का इक्का साबित हो जाता है। यहाँ भी आकर्षण का सिद्धांत लागू होने लगता है।
गिनती को पूरा करने हेतु जरूरत व नियमों को बदला जा सकता है। शायद इसीलिए आवश्यकता को अविष्कार की जननी कहा जा सकता है। फूँक- फूँक कर कदम रखते हुए चलने से लम्बी दूरी तय करने में असुविधा होती है। जब तक रिस्क न लिया जाए तब तक विजेता का ताज नहीं मिलता है। चाहें कितनी बार गिरें किन्तु जीत का ताज पहनते ही सारा अपमान और दर्द छूमंतर हो जाता है। अब तो बस लक्ष्य भेदी गूँज कानों में सुनाई देने लगती है। हिप- हिप हुर्रे कहते हुए अगले लक्ष्य की ओर रुख करना ही सफल लोगों का फलसफा है।
© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’
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