डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘साहब की किरकिट’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 148 ☆

☆ व्यंग्य – साहब की किरकिट

विमल नया नया दफ्तर में भर्ती हुआ है। जोश है, कुछ करने की कुलबुलाहट होती है। अभी उसकी ज़िंदगी का ‘दफ्तरीकरण’ होना शुरू नहीं हुआ है।

दफ्तर में नये साल की पार्टी थी। तभी विमल ने बड़े साहब के सामने प्रस्ताव रख दिया, ‘सर, क्यों न इतवार को दफ्तर के लोगों का एक क्रिकेट मैच हो जाए।’

बड़े साहब को भी कुछ अच्छा लगा। उन्होंने मंजूरी दे दी। विमल ने दौड़-भाग करके क्रिकेट का सामान इकट्ठा कर लिया। दफ्तर के बड़े बाबू अग्रवाल जी ने सुना तो माथा ठोंका, बोले, ‘इन नये नये लौंडों के आने से यही तो गड़बड़ होती है।अब दफ्तर वाले ‘किरकिट’ खेलेंगे। एक इतवार मिलता था घर की सब्जी भाजी लाने के लिए, वह भी गया। खेलो किरकिट।’

गुजराती क्लब के मैदान में इंतज़ाम हुआ। दर्शकों के लिए कुर्सियाँ लगायी गयीं। साहबों की मेम साहबें उन पर आकर विराजीं। लंच का इंतज़ाम किया गया।

दो टीमें बनीं। एक के कप्तान बड़े साहब, दूसरी के छोटे साहब। खेल शुरू हुआ। जैसे बल्लेबाज़, ऐसे ही गेंदबाज़। जो कभी पहले खेलते भी रहे थे उनकी उँगलियाँ अब कलम पकड़ने की ही अभ्यस्त रह गयी थीं। गेंदबाज़ों की गेंद विकेटों से कई फुट दूर से निकल जाती। बल्ला बढ़ाने पर भी गेंद छूने को न मिलती। कभी टप्पा खाकर ऐसे उछलती कि खेलने वाले को अपना चश्मा सँभालना मुश्किल हो जाता। सबको खेल से ज़्यादा अपने हाथ-पाँव बचाने की फिक्र थी। मनोरंजन के पीछे हाथ-पाँव टूटें और दफ्तर से छुट्टी लेना पड़े तो हो गया खेल। चश्मा टूट जाए तो एक हज़ार रुपये की दच्च पड़े।

बड़े साहब खेलने आये तो सब ने तालियाँ बजायीं। छोटी अफसर-पत्नियाँ बड़ी मेम साहब के पास तारीफ करने के लिए सिमट आयीं।

छोटे साहब ने गेंद सँभाली। बहुत सँभल कर गेंद फेंकना शुरू किया, कि न साहब को लगे, न विकेटों को। बड़े साहब हर बार हवा में बल्ला घुमा देते। कभी बल्ला गेंद में लग जाता तो सब फील्डर तालियाँ बजाते, कहते, ‘वाह साहब, क्या बढ़िया शॉट लगाया है।’ अफसर-पत्नियाँ बड़ी मेम साहब से कहतीं, ‘कितना अच्छा खेल रहे हैं। जरूर नई उमर में खूब खेलते रहे होंगे।’ तारीफ करने की होड़ लगी थी। सबने कम से कम एक वाक्य बोला। चुप रहें तो घर लौटने पर पति की लताड़ सुननी पड़े।

श्रीमती वर्मा बोलीं, ‘जब अभी इतना अच्छा खेलते हैं तो नई उमर में तो चैंपियन रहे होंगे।’

बड़ी मेम साहब खुश होकर बोलीं, ‘मेरे को नईं मालूम।’

एक गेंद पर बड़े साहब ने बल्ला घुमाया। संयोग से बल्ला गेंद में लग गया और गेंद चौधरी बाबू की तरफ भागी। चौधरी बाबू ने रोकने का अभिनय करते हुए उसे एक लात लगायी और गेंद चार रन की बाउंड्री की तरफ दौड़ी। बाउंड्री पार करने से पहले ही अंपायर बने बख्शी बाबू ने बाउंड्री का इशारा दे दिया। खूब जोरों की तालियाँ बजीं।।

चौधरी बाबू प्रमुदित होकर बोले, ‘कमाल का शॉट लगाया साहब।’ बख्शी बाबू भी चौका देखकर बहुत खुश थे।

बड़े बाबू ‘किरकिट विरकिट’ भूलकर लंच के इंतज़ाम में लगे थे। भीतर से उन्हें बड़ा संताप था कि दफ्तर के लौंडों ने उनका इतवार खराब कर दिया था। जब साहब के किसी शॉट पर तालियाँ बजतीं तो वे भी घूम कर ताली बजाकर ‘वाह’ बोलते और फिर वापस अपने काम में लग जाते।

बड़े साहब आधे घंटे से जमे थे। उनका आउट होना मुश्किल था क्योंकि कोई उन्हें आउट करना ही नहीं चाहता था।

तभी छोटे साहब ने एक तरफ से गेंद फेंकने का काम विमल को दिया।

विमल बड़े साहब के अभी तक आउट न होने पर कसमसा रहा था। नौकरी की ड्यूटी के अनेक पहलू अभी तक उसकी समझ में नहीं आये थे।

छोटे साहब ने उसे गेंद देते हुए कहा, ‘ठीक से फेंकना।’

विमल बड़े साहब को आउट करके अपना कौशल दिखाना चाहता था। अफसर- पत्नियों पर प्रभाव डालने की भी कुछ ललक थी। उसने धीमी लेकिन सीधी गेंद फेंकी।

पहली गेंद तो विकेटों के ऊपर से निकल गयी, दूसरी ने सब गिल्लियाँ बिखेर दीं। लेकिन अंपायर बख्शी बाबू ने गिल्लियाँ उड़ते ही हाथ उठाकर कहा, ‘नो बॉल।’

विमल कुछ नहीं बोला। अगली गेंद में फिर गिल्लियाँ साफ। बख्शी बाबू फिर हाथ उठाकर बोले, ‘नो बॉल।’ विमल बोला, ‘पहले ही कहना चाहिए था।’ बख्शी बाबू बोले, ‘पहले ही कहा था।’

अगली गेंद फिर गिल्लियाँ ले गयी। बख्शी बाबू फिर हाथ उठाकर बोले, ‘नो बॉल।’ लेकिन बड़े साहब को कुछ शर्म लगी। बल्ला ले कर चल दिये, बोले, ‘नहीं भई, हम आउट हो गये।’

सबको लगा कि खेल का मज़ा ही ख़त्म हो गया। जब बड़े साहब ही मैदान से हट गये तो खेल का मज़ा ही क्या रहा? साहब गये तो जैसे खेल की जान निकाल ले गये।

बड़े बाबू काम छोड़कर दौड़े दौड़े विमल के बाद आये, बोले, ‘तुम अजीब बेवकूफ हो। साहब को आउट करके धर दिया। टेढ़ी-मेढ़ी गेंदें नहीं फेंक सकते थे?’

विमल बोला, ‘मैं तो ‘रूल्स’ के हिसाब से ही खेल रहा था।’

बड़े बाबू बोले, ‘बेटा, ‘किरकिट’ के रूल्स तो बहुत जानते हो, अब कुछ नौकरी के रूल्स भी समझ लो, नहीं तो कभी तुम्हारी गिल्लियाँ ऐसी साफ होंगीं कि दुबारा जमाना मुश्किल हो जाएगा।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

image_print
0 0 votes
Article Rating

Please share your Post !

Shares
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments