श्री संजय भारद्वाज
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 147 ☆ प्रकृति कितना देती है- ☆
लगभग पंद्रह दिन पहले हमारे शहर में पानी कटौती की घोषणा की गई थी। चार बांधों की कुल क्षमता उनत्तीस टीएमसी है। जुलाई के आरंभ तक केवल अढ़ाई टीएमसी पानी ही शेष बचा था। शहर आतुरता से मानसून की बाट जोह रहा था। कटौती आरम्भ हुई। बमुश्किल दो या तीन बार ही कटौती अमल में लाई जा सकी। इस बीच वर्षा ने शहर में मानो अपना डेरा ही डाल लिया। सूखा शहर आकंठ डूब गया पानी की अमृत बूँदों में। पिछले बारह दिनों में बारह टीएमसी पानी बांधों में जमा हो चुका। मूसलाधार वर्षा ने बांधों का चालीस प्रतिशत कोटा बारह दिनों में ही पूरा कर दिया। यह तब है जब मनुष्य पिछले कुछ दशकों से हरियाली पर निरंतर धावा बोल रहा है। खेती की ज़मीन बिल्डरों के हवाले कर रहा है, पेड़ काट रहा है, काँक्रीट के जंगल बना रहा है। डामर और सीमेंट की चौड़ी सड़कों, प्लास्टिक वेस्ट, ई-कचरा, कार्बन उत्सर्जन से प्रकृति की श्वासनली बंद करने का प्रयास कर रहा है।
पानी की निकासी और धरती में समाने के प्राकृतिक मार्ग अनेक स्थानों पर हमने बंद कर दिये हैं। हम प्रकृति को प्यासा मार रहे हैं और प्रकृति हमारे लिए जगह-जगह बारहमासी प्याऊ लगाने में जुटी है।
प्रकृति चराचर की माँ है। माँ सदैव दाता ही रहती है। सुमित्रानंदन पंत जी की सुप्रसिद्ध कविता ‘यह धरती कितना देती है’ स्मरण हो आती है। इस लम्बी कविता की कुछ चुनिंदा पंक्तियाँ देखिए-
मैंने छुटपन में छिपकर पैसे बोये थे
सोचा था पैसों के प्यारे पेड़ उगेंगे….
पर बंजर धरती में एक न अंकुर फूटा,
बंध्या मिट्टी ने न एक भी पैसा उगला…!
मैंने कौतूहलवश आँगन के कोने की
गीली तह को यों ही उंगली से सहलाकर
बीज सेम के दबा दिए मिट्टी के नीचे….!
देखा आँगन के कोने में कई नवागत
छोटे-छोटे छाता ताने खड़े हुए हैं…!
अनगिनती पत्तों से लद, भर गयी झाड़ियाँ
हरे भरे टंग गये कई मखमली चँदोवे
बेलें फैल गई बल खा, आँगन में लहरा..!
यह धरती कितना देती है…! धरती माता
कितना देती है अपने प्यारे पुत्रों को…!
सोचता हूँ प्रकृति कितना देती है। अपनी स्वार्थलोलुपता में प्रकृति के मूल पर चोट कर मनुष्य, मौसमी असंतुलन का शिकार हो रहा है। सनद रहे, इस असंतुलन से संतुलन की ओर लौटने के सिवा अन्य कोई विकल्प नहीं है।
© संजय भारद्वाज
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
मोबाइल– 9890122603
संजयउवाच@डाटामेल.भारत
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈