डॉ कुंदन सिंह परिहार
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित आपका एक विचारणीय कहानी ‘जेबकतरे ’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ कहानी – जेबकतरे ☆
उस दिन मुझे जबलपुर से सतना तक ट्रेन से सफर करना था। ट्रेन में रिज़र्वेशन की सुविधा नहीं थी। बस, टिकट खरीद लो और जहाँ जगह मिले, बैठ जाओ। प्लेटफॉर्म पर लहराती हुई भीड़ को देखकर मुझे लगा आज का सफर बहुत मुश्किल होगा।
ट्रेन आयी और चढ़ने के लिए धक्का-मुक्की शुरू हो गयी। मुझे डिब्बे में प्रवेश करना बहुत कठिन लग रहा था, लेकिन तभी एक परिचित डिब्बे के अंदर दिख गये और उनकी मदद से डिब्बे में प्रवेश मिल गया।
जल्दी ही खिड़की के सामने प्लेटफॉर्म पर एक नाटक हुआ। कुछ लोग दस बारह साल के दो छोकरों को कहीं से पकड़ कर लाये और उनके साथ मारपीट करने लगे। उन लोगों का कहना था कि छोकरे जेबकतरे हैं। मारपीट के साथ वे उनसे कुछ पूछताछ भी कर रहे थे। इतने में ही कहीं से दो आदमी प्रकट हुए। उन्होंने दोनों छोकरों को उन लोगों के हाथों से छुड़ाकर उन्हें एक एक लात लगायी। छोकरे छूटते ही एक दिशा में भाग गये। उनके पीछे वे दोनों आदमी भी चले गये और छोकरों को पकड़ने वाले देखते रह गये। इसके बाद डिब्बे के भीतर और बाहर टिप्पणियाँ हुईं कि दोनों आदमी छोकरों से मिले हुए थे और उन्होंने जानबूझकर उन्हें भगाया था।
ट्रेन चलने के बाद डिब्बे में जेबकतरों के किस्से शुरू हो गये। एक साहब ने बताया कि अब जेबकतरे पकड़े जाने पर ब्लेड से पकड़ने वाले का हाथ भी चीर देते हैं और भाग जाते हैं। एक सज्जन ने लखनऊ का किस्सा सुनाया कि वहाँ के जेबकतरों की प्रसिद्धि सुनकर कैसे एक साहब अपनी जेब में नकली सोने के सिक्कों को लेकर घूमते रहे और शाम को डींग मारने लगे, और कैसे वहाँ के जेबकतरे ने उन्हें बताया कि उनकी जेब से नकली सिक्के निकालकर और परख कर वापस उनकी जेब में रख दिये गये थे।
फिर तो किस्से में किस्से जुड़ते गये और ‘जेबकतरा-पुराण’ बनता गया। लोगों ने मुग़ल बादशाहों के ज़माने से लेकर वर्तमान जेबकतरों तक का यशोगान किया। हम सब तन्मय होकर सुनते रहे और रोमांचित होते रहे।
एकाएक डिब्बे के दरवाजे़ की तरफ शोर हुआ और सब का ध्यान उस तरफ बँट गया। पता चला कोई जेबकतरा जेब काटने की कोशिश करता पकड़ा गया है। खड़े हुए लोगों की जु़बान पर चढ़कर बातें हम तक आने लगीं। पता लगा कि उसने किसी की जेब में हाथ डाला था कि पकड़ में आ गया।
बड़ी देर तक गर्मा-गर्मी की आवाज़ें आती रहीं। तेज़ बातों के साथ आघातों की आवाजे़ं में भी आ रही थीं, जिन से ज़ाहिर होता था कि जेबकतरे की पूजा घूँसों से की जा रही है।
जब बहुत देर हो गयी तो मेरी उत्सुकता जागी। किसी तरह लोगों के बीच से जगह बनाता मैं उस हिस्से में पहुँचा जहाँ लोगों की एक मोटी गाँठ इकट्ठी थी। बड़ी मुश्किल से मैंने लोगों के बीच से झाँका। उस गाँठ के बीच में एक साँवला युवक था, कमीज़ पतलून पहने। उसके सिर के बाल बहुत सस्ते ढँग से सँवारे हुए थे और वह सामान्य परिवार का दिखता था। क्या वह जेबकतरे सा लगता था? हाँ, वह शत-प्रतिशत जेबकतरा लगता था क्योंकि यदि किसी महात्मा को भी एक बार जेबकतरे का लेबिल लगाकर आपके सामने खड़ा कर दें तो वे हर तरफ से जेबकतरे लगने लगेंगे।
ख़ास बात यह थी कि युवक की नाक से ख़ून बह रहा था और उसकी कमीज़ पर ख़ून के दाग ही दाग थे। वह बार-बार अपनी हथेली से अपनी नाक पोंछता था, जिस कारण उसकी हथेली भी लाल हो गयी थी।
सहसा युवक ने अपने सामने खड़े लोगों की तरफ हाथ बढ़ाये और चीखा, ‘मेरे पैसे लौटा दो। वे चोरी के नहीं, मेरे खुद के पैसे थे।’
जवाब में वहाँ खड़े एक आदमी ने एक घूँसा उसकी नाक पर मारा और वह आँख मींच कर चुप हो गया। उसने अपनी कमीज़ उतार कर नाक पर लगा ली।
लेकिन आधे मिनट की चुप्पी के बाद ही वह हाथ उठाकर पागलों की तरह फिर चीखा, ‘अरे मेरे पैसे दे दो रे। मैंने चोरी नहीं की। वे मेरे पैसे थे। मेरे पैसे लौटा दो।’
फिर एक घूँसा उसकी नाक पर पड़ा और वह फिर शांत हो गया।
कुछ क्षण रुकने के बाद वह एक आदमी का कॉलर पकड़कर आँखें फाड़े बिलकुल विक्षिप्त की तरह चिल्लाने लगा, ‘मेरे पैसे दे दे नहीं तो मैं तुझे मार डालूँगा। मैं तुझे खा जाऊँगा।’
सब तरफ से घूँसों की बारिश शुरू हो गयी और युवक अपना चेहरा बाँहों में छिपा कर पीछे दीवार से टिक गया।
स्थिति मेरे बर्दाश्त से बाहर थी, अतः मैं अपनी सीट की तरफ वापस लौटा। तभी मैंने सुना कोई कह रहा था, ‘साले की घड़ी भी चोरी की होगी। उतार लो।’
इसके थोड़ी देर बाद ही उस तरफ इकट्ठी भीड़ छँटनी शुरु हो गयी और लोग हमारी तरफ को आने लगे। मैंने देखा उधर से आये दो आदमियों ने अपनी मुट्ठी में दबे नोट गिने और अपनी जेब में रख लिये। उन्हीं में से एक के हाथ में वह घड़ी थी जो थोड़ी देर पहले उस युवक की कलाई पर थी। वह आसपास बैठे लोगों को वह घड़ी दिखा रहा था।
गाड़ी कटनी स्टेशन पर रुकी। युवक से चीज़ें छीनने वाले मेरी खिड़की पर इकट्ठे होकर सावधानी से झाँकने लगे।
उनमें से एक झाँकता हुआ बोला, ‘उतर गया।’
दूसरा पीछे से बोला, ‘देखो कहाँ जाता है। स्टेशन मास्टर के दफ्तर में जाता है क्या?’
पहला झाँकता हुआ बोला, ‘नहीं दिख रहा है। लगता है किसी दूसरे डिब्बे में चला गया।’
यह सुनकर उन सब ने लंबी साँस छोड़ी। एक बोला, ‘उसकी क्या हिम्मत है शिकायत करने की।’
इसके बाद उन सब ने ज़ोर का ठहाका लगाया और बोले, ‘साला, जेबकतरा कहीं का।’
© डॉ कुंदन सिंह परिहार
जबलपुर, मध्य प्रदेश
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈