डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य दलिद्दर की बीमारी। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 150 ☆

☆ व्यंग्य – दलिद्दर की बीमारी 

दलिद्दर अपनी कंजूसी के लिए विख्यात हैं। माँ-बाप ने तो उनका नाम चंद्रमा प्रसाद रखा था, लेकिन उनके सूमपन को देखकर मोहल्ले वालों ने उनका नाम दलिद्दर रख दिया था। चंद्रमा प्रसाद ने भी इस नाम को स्वीकार कर लिया था। जब लोग उन्हें ‘दलिद्दर’ कहकर पुकारते तो वे घूम कर प्रेम से जवाब देते, ‘हाँ भैया।’

दलिद्दर ने कौड़ी कौड़ी जोड़कर भारी मकान खड़ा किया था। उसमें छोटे-छोटे कमरे बनाकर चार किरायेदार घुसा दिए थे। मकान बनते वक्त दलिद्दर ने खुद ही ईंटें ढोयीं थीं और मिस्त्री का काम भी किया। इसमें उनका उद्देश्य सिर्फ पैसा बचाने का था।

अब दलिद्दर अपने किरायेदारों को हलाकान किये रहते थे। रोज उन्हें पच्चीस निर्देश देते। उनका व्यवहार ऐसा था जैसे मकान किराये पर देकर उन्होंने कोई एहसान किया हो, या जैसे किरायेदार मुफ्त में रह रहे हों।

दलिद्दर हमेशा गंदी कमीज़ और पायजामा पहनते थे और अक्सर नंगे पाँव रहते थे। संपन्न होने के बाद भी वे हरएक के सामने अपने कष्टों का रोना रोते रहते। कोई उनकी संपन्नता की बात करता तो वे मुँह पर भारी दुख लाकर कहते, ‘अरे भैया, साँप के पाँव साँप को ही दिखते हैं। यहाँ गिरस्ती का बोझ उठाते कमर टूट रही है और तुम्हें मजाक सूझता है। तुम क्या समझते हो ये गंदे कपड़े पहनने का मुझे शौक है?’ कई बार वे अपनी तकलीफों का बयान करते आँखों में आँसू भर लाते।

दलिद्दर शाम को चौराहे पर चाय की दूकान के पास खड़े रहते। कोई परिचित दिखता तो खिलकर कहते, ‘आओ भई, मैं देख रहा था कोई दोस्त मिले तो चाय का जुगाड़ हो जाए। बड़ी कड़की चल रही है।’

कोई उनसे चाय पिलाने को कहता तो वे या तो ठंडी आह भरकर ज़मीन की तरफ देखने लगते, या कहते, ‘यार, अभी पिछले महीने ही तो पिलायी थी। एक महीना भी तो नहीं हुआ। हम कोई धन्नासेठ हैं जो रोज चाय पिलायें।’

दलिद्दर अपनी या परिवार की दवा- दारू पर बहुत कम पैसा खर्चते थे। कभी कोई बीमार पड़ता तो दवा की दूकान पर जाते और कहते, ‘भैया, बुखार की कोई सस्ती गोली दे दो।’ जब हालत चिन्ताजनक हो जाती तभी डॉक्टर के पास जाते। तब भी अगर डॉक्टर दस दिन दवा खाने को कहता जो पाँच दिन में ही बन्द कर देते।

एक बार दलिद्दर को बुखार आया। दलिद्दर जाते और दूकानदार से पूछकर सस्ती गोलियाँ लेकर खा लेते। लेकिन बुखार ठीक नहीं हुआ। आखिर हारकर दलिद्दर डॉक्टर के पास पहुँचे। डॉक्टर ने जाँच की, कहा, ‘कंजूसराम, रोग बिगाड़ कर अब हमारे पास आये हो? दवा खानी हो तो हम लिखें, नहीं तो भोगते रहो।’

दलिद्दर दुखी भाव से बोले, ‘खाएँगे। आप लिख दो।’

डॉक्टर बोला, ‘नहीं खाओगे तो ऊपर चले जाओगे। सोच लो, पैसा बचाना है या जान।’

दलिद्दर कुछ खीझ कर बोले, ‘कहा न। खाएँगे। लिख दो।’

डॉक्टर ने परचा दिया तो दलिद्दर बोले, ‘आपके पास तो नमूने की दवाइयाँ पड़ी होंगीं। उन्हीं में से दे दो। आपको पुन्न होगा।’    

डॉक्टर बोला, ‘ये दवाइयाँ मेरे पास नहीं हैं। दूकान से खरीदनी पड़ेंगीं। फिर तुम जैसे आदमी को मुफ्त में दवा देने से मुझे कोई पुण्य नहीं होने वाला।’

दलिद्दर चुप हो गये। फिर उन्होंने अपनी जेबें घिस घिस कर बड़ी देर में नोट निकालकर डॉक्टर की फीस दी। फिर वे मुँह लटकाये दवा की दूकान पर पहुँचे। दवा के दाम पूछे। दाम सुनकर वापस लौट कर डॉक्टर के पास आ गये, बोले, ‘यह कैसी दवा लिखी आपने। एक  कैप्सूल दस रुपये का। रोज तीन कैप्सूल खाना है। तीस रुपये के हुए। कोई सस्ती दवा लिखिए।’

डॉक्टर बोला, ‘पहले आ जाते तो सस्ती दवा से काम चल जाता। अब यही दवा खानी हो तो खाओ नहीं तो घर जाकर यमराज का इंतज़ार करो।’

दलिद्दर गुस्सा होकर ‘अंधेर है’ कह कर चले गये।

इसके बाद दलिद्दर एक हफ्ते बाद दिखाने आये। उनके चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रही थीं और शरीर दुबला दिख रहा था। डॉक्टर ने जाँच की, बोला, ‘बुखार तो ठीक है, लेकिन तुम्हारी हालत क्या हो रही है?’

दलिद्दर दुखी भाव से बोले, ‘पता नहीं। जी घबराता है, रात को नींद नहीं आती। भूख गायब है। लेकिन कोई नयी दवा मत लिख देना।’

अगले हफ्ते दलित आये तो उनका मुँह और लटका था। डॉक्टर जाँच करके बोला, ‘अब बुखार तो बिल्कुल ठीक है, लेकिन तुम लटक क्यों रहे हो?’

दलिद्दर भन्ना कर बोले, ‘हमसे पूछ रहे हैं कि हम क्यों लटक रहे हैं। पन्द्रह दिन की दवा में एक हजार से ज्यादा खर्च हो गये। इतने तो हमने जिन्दगी में कभी दवा पर खर्च नहीं किये होंगे। इतनी मँहगी जिन्दगी से तो मौत अच्छी।’

डॉक्टर हंँसकर बोला, ‘चलो, अब खुश हो जाओ। अब तुम ठीक हो गये। अब और पैसा नहीं लगेगा।’

दलिद्दर मनहूस चेहरा लिये उठे। उठ कर बोले, ‘खुश कैसे हो जाएँ? जो खर्च हो गया है उसको पूरा करने में दो चार महीने लग जाएँगे। किफायत से रहना पड़ेगा। आपने एक बीमारी ठीक करके दूसरी लगा दी। पहली बीमारी तो जल्दी ठीक हो गयी, दूसरी ठीक होने में टाइम लगेगा।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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