श्री अरुण श्रीवास्तव
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपके एक मज़ेदार व्यंग्य श्रंखला “प्रशिक्षण कार्यक्रम…“ की प्रथम कड़ी ।)
☆ व्यंग्य # 42 – प्रशिक्षण कार्यक्रम – भाग – 1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
ये भी बैंकों की सामान्य प्रक्रिया का ही अंग है जो अपने स्टाफ को अद्यतन करने या फिर विशेष असाइनमेंट के लिये तैयार करने के लिए दिया जाता है.अक्सर इसका प्रभाव कोविड वेक्सीन के समान ही होता है याने जो सावधानियां वेक्सीनेशन के पहले ली जाती आई हैं, वही वैक्सीनेशन के बाद भी ली जानी है. आत्मा वही रहती है अर्थात आत्मा में परिवर्तन होता नहीं है चाहे प्रशिक्षार्थी कोई भी रहे, पर प्रशिक्षण फिर भी आवश्यक है जैसे बी.ए.की डिग्री पाना. होता जाता कुछ नहीं है पर आप मोहल्ले में बता सकते हो क्योंकि लोगों के जीवन में हास्यरस हमेशा महत्वपूर्ण है.
व्यक्तिगत रूप से इसके ज्ञान पाने के अलावा भी बहुत फायदे हैं. इस अवधि में शाखा या कार्यालय के काम से छुट्टी मिल जाती है. जो छड़े हैं या कुंवारे हैं, उन्हें खाने की और स्वाद की चिंता से मुक्ति मिल जाती है. जो विवाहित हैं, वे “नून तेल लकड़ी” के गृहस्थ जीवन से पीरियाडिक राहत पा लेते हैं. पति पत्नी के संबंधों में यह प्रशिक्षण रूपी विरह काल, माधुर्य उत्पन्न कर देता है. फरमाइशें विलंबित हो जाती हैं और सिर्फ ये गाना “तुम लौट के आ जाना, पिया याद रखोगे कि भूल जाओगे” सुनाई देता है. पर याद रखें कि कवि के लिखे इस गीत पर आंख बंद कर विश्वास मंहगा पड़ सकता है. ये गीत फिल्मों के लिये लिखा गया था जहाँ गीतकार, गायक, संगीतकार और हीरो हीरोइन सब बाकायदा पेमेंट लेकर ऐसा अभिनय कर रहे थे. अगर सिकंदर के समान खाली हाथ लौटे तो घर पर खाना “कपूर एंड संस इंदौर वाले” नहीं बनाने वाले. जो कुंवारे प्रशिक्षु होते हैं, हो सकता है वे अपनी प्रेमिका या मंगेतर के लिये मंहगी गिफ्ट ले जाने की चाहत रखें पर बैंक खुले हाथ खर्च करने लायक वेतन देती नहीं हैं. फिर रात्रिकालीन प्रि-डिनर सेशन का भी तो देखना पड़ता है.
सुबह की बेड टी से, प्रशिक्षण केंद्र का बंदा जब जगाता है तो मीठे सपने अपना विराम पाते हैं और अच्छे अच्छे गुड बॉय भी बेड टी जरूर पीते हैं. सबसे शानदार ब्रेकफास्ट का सेशन रहता है जब लोग सुबह की असली शुरुआत करते हैं, एक दूसरे से हल्का फुल्का परिचय प्राप्त करते हैं और डायनिंग टेबल पर पूरी सजगता और क्षमता से वो सब हासिल करते हैं जो बैंक की रुटीन लाइफ में सौ प्रतिशत संभव नहीं हो पाता. सामान्यतः नुक्स निकालने लायक कुछ होता नहीं है पर फिर भी कुछ आ ही जाते हैं जो ब्रेड, ऑमलेट और शाकाहारी आइटम में कुछ ढूंढ ही लेते हैं, कुछ तो फलों में भी पर केंटीन के बंदे पक्के अनुभवी होते हैं तो वो बड़ी कुशलता से ऐसी स्थितियां हेंडल कर लेते हैं. चाय और कॉफी दोनों का ऑप्शन होता है याने टेबल पर मौजूद रहते हैं. पर चाय पीने के बाद अगर पसंद न आये तो कॉफी भी बेधड़क पी जा सकती है और अगर कॉफी कड़वी लगे तो टेस्ट सुधारने के लिये फिर से चाय का सहारा लेने से रोकता कौन है. ब्रेकफास्ट की टेबल तक पहुंचने के लिये पंक्चुअल होना बहुत जरूरी है वरना लेट होने पर “खाली खाली तंबू है, खाली खाली डेरा है, बिना चिड़िया का बसेरा है, न तेरा है न मेरा है” याने बाजार खाली भी मिल सकता है. अगला भोजन रूपी स्टेशन का दो बजे के पहले नहीं आता और इस अवधि में क्लास भी तो अटैंड करनी है जो शाखा जाने से भी ज्यादा अनिवार्य होती है.
प्रशिक्षण का पहला सत्र, औपचारिक परिचय का सत्र होता है. सेवाकाल के प्रथम प्रशिक्षण काल में अधिकतर तो लोग अनजाने होते हैं पर हर प्रशिक्षण में कुछ बहुत अच्छे मित्र बन जाते हैं जो कि एक महत्वपूर्ण उपलब्धि कही जा सकती है. ये मित्रता के संबंध प्रायः दीर्घकालिक होते हैं और बहुत सी स्मृतियों का खजाना भी समेटे रहते हैं. क्लास में प्रवेश के बाद स्थान ग्रहण करने के लिये पंक्ति याने लाइन का चयन और समीप बैठने वाले सहपाठी से अभिन्नता बहुत कुछ पर्सनैलिटी टेस्ट भी होती है. जो सबसे अगली कतारों में बैठते हैं, वो स्कूल कॉलेज का माइंडसेट ही लेकर बैठते हैं, कुछ अनुभवी इसलिए भी बैठते हैं कि दिया तले अंधेरा हमेशा होता है तो पढाने वाले सर की नज़रों से बचा जा सकता है. वैसे नींद आने पर इंक्रिमेंट रुकने या जवाब देने की बाध्यता नहीं होती पर आखिर संस्कार भी कुछ होते हैं जो मिडिल आर्डर में बैठते हैं, वो प्रायः हर जगह बैक बोन ही होते हैं और ओपनर्स के जल्दी आउट होने पर पारी संभालने जैसा रोल भी शाखाओं और कार्यालयों में करते हैं. जब मधुशाला रूपी पार्टियों में कोई ऑउट होने लगता है तो उसे भी यही संभालते हैं. लॉस्ट बट नाट दी लीस्ट टाइप वाले बैठते तो अंतिम कतारों में हैं पर कमजोर नहीं “बड़े वो” वाले होते हैं पीछे डबल क्लास चलती है, एक तो वो जो प्रशिक्षक पढ़ा रहे हैं और दूसरी वो जो ये खुद चलाते हैं याने एक दूसरे को पढाते हैं. इन लोगों के पास मजे लेने का रेगुलेटर होता है अर्थात इनके रिवाल्वरों में साइलेंसर लगे होते हैं. यहां जो इन बैक बैंचर्स का सानिध्य पाता है ,वह बैंकिंग के अलावा दुनियादारी भी सीखता है. ये बैक बेंचर्स, दर असल बैंचमार्क होते हैं जो मल्टी टास्किंग के बंदे तैयार करते हैं. इनसे प्रशिक्षण प्राप्त बंदे शाखा प्रबंधक बनने पर कस्टमर, स्टाफ और हेडऑफिस सबको बड़ी कुशलतापूर्वक हैंडल करते हैं.
प्रशिक्षण काल का पहला दिन पहला सत्र है, आगे भी प्रशिक्षण जारी रहेगा. उद्देश्य सिर्फ मनोरंजन है, आगे भी रहेगा अतः दिल पर न लें.
क्रमशः…
© अरुण श्रीवास्तव
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