हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #154 ☆ व्यंग्य – कल्चर करने वाले ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य ‘कल्चर करने वाले ’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 154 ☆

☆ व्यंग्य – कल्चर करने वाले

अविनाश बाबू संपत्ति वाले आदमी हैं। दो तीन फैक्ट्रियां है। कई कंपनियों में शेयर हैं। उमर ज़्यादा नहीं है।आठ दस साल पहले शादी हुई थी। तीन-चार साल पत्नी के साथ प्यार-मुहब्बत में, घूमते घामते  गुज़र गये। फिर दो बच्चे हो गये। उन्हें सँभालने के लिए आया, नौकरानियाँ हैं। मगर आठ दस साल में जीवन का रस सूख चला। सबसे बड़ी समस्या समय काटने की थी। धंधे में कुछ ज़्यादा देखने-सँभालने को नहीं था। मैनेजर, कर्मचारी सब कामकाज बड़ी कुशलता से सँभालते थे। अविनाश और श्रीमती अविनाश क्या करें? कितना सोयें, कितना खायें, कितना ताश खेलें? उबासियाँ लेते लेते जबड़े दुखने लगते। दिन पहाड़ सा लगता और रात अंतहीन अंधेरी गुफा सी। अविनाश जी की तोंद भी काफी बढ़ गयी थी।

अंत में एक दिन श्रीमती अविनाश ने अपनी समस्या श्रीमती दास के सामने रखी। श्रीमती दास उनकी पड़ोसिन थीं। उनके पति एक साधारण अधिकारी थे, लेकिन श्रीमती दास बड़ी सोशल और क्रियाशील महिला थीं। वे हमेशा किसी न किसी आयोजन में इधर से उधर भागती रहती थीं। शहर के सभी महत्वपूर्ण महिलाओं- पुरुषों से उनका परिचय था। सवेरे नौ बजे वे कंधे पर अपना बैग लटका कर निकल पड़तीं और अक्सर दोपहर के भोजन के लिए भी लौट कर न आतीं। उनके पति भी बेचारे बड़े धीरज से उनका साथ निबाहते थे, यह तो मानना ही होगा।

श्रीमती अविनाश की समस्या सुनकर श्रीमती दास ने ठुड्डी पर तर्जनी रखकर आश्चर्य व्यक्त किया, बोलीं, ‘हाय, ताज्जुब है कि आपको समय काटने की समस्या है। शहर में इतने प्रोग्राम होते रहते हैं, आप इनमें जाना तो शुरू करिए। लोग तो आपको सर-आँखों पर बिठाएंगे। समय काटने की प्रॉब्लम चुटकियों में हल हो जाएगी।’

दो दिन बाद ही श्रीमती दास अविनाश दंपति को एक संगीत कार्यक्रम में ले गयीं। वहाँ शहर के कई महत्वपूर्ण लोगों से उनका परिचय कराया। श्री और श्रीमती अविनाश को संगीत का सींग-पूँछ तो कुछ समझ में नहीं आया, लेकिन उन सब भले लोगों के बीच में बैठना उन्हें अच्छा लगा। कुल मिलाकर उनकी वह शाम अच्छी कटी।

उसके बाद गाड़ी चल पड़ी। आये दिन शहर में कोई न कोई कार्यक्रम होता और श्रीमती दास अविनाश दंपति को वहां ले जातीं। फिर तो अविनाश दंपति के पास खुद ही कई निमंत्रण-पत्र आने लगे। श्रीमती दास ने उन्हें कई संस्थाओं का सदस्य बनवा दिया। श्री अविनाश की हैसियत को देखते हुए वे कुछ ही समय में कई संस्थाओं के अध्यक्ष बन गये। अब उनकी व्यस्तता बहुत बढ़ गयी। जहाँ भी श्री अविनाश जाते श्रीमती अविनाश उनके साथ जातीं।

शोहरत कुछ और बढ़ी तो श्री अविनाश कई उत्सवों के अध्यक्ष बनाये जाने लगे। वे कई जगह उद्घाटन के लिए जाते और अच्छा-खासा भाषण झाड़ते। धीरे-धीरे वे शहर के जाने-माने उद्घाटनकर्ता बन गये।

शुरू शुरू में ऐसे मौकों पर उनका हौसला पस्त हो जाता था क्योंकि उद्घाटन के बाद भाषण देना पड़ता था, जो श्री अविनाश के लिए उन दिनों टेढ़ी खीर थी। ऐसे समय श्रीमती दास उनके काम आतीं। वे लच्छेदार भाषा में सुंदर-सुंदर भाषण तैयार कर देतीं और श्री अविनाश जेब से निकाल कर पढ़ देते। धीरे-धीरे वे समझ गये कि सभी भाषणों में खास-खास बातें वही होती हैं, सिर्फ अवसर के हिसाब से थोड़ी तब्दीली करनी पड़ती है। भगवान की कृपा से जल्दी ही उनमें इतनी योग्यता आ गयी कि अब किसी भी मौके पर बिना तैयारी के फटाफट भाषण देने लगे। एकाध बार तो ऐसा हुआ कि उन्होंने भाषण-मंच पर पहुँचकर ही पूछा कि आयोजन किस खुशी में है, और तुरंत भाषण दे डाला।

अविनाश दंपति के समय का अब पूरा सदुपयोग होने लगा। अब वे रात को देर से लौटते, व्हिस्की का छोटा सा ‘निप’ लेते, और सो जाते। बढ़िया नींद आती। उनका अनिद्रा का रोग जड़ से खत्म हो गया। सवेरे नौ बजे उठते जो मन प्रसन्न रहता। स्वभाव की चिड़चिड़ाहट खत्म हो गयी। नौकर-नौकरानियों पर मेहरबान रहते। नौकर  नौकरानियाँ भी मनाते कि हे प्रभु, जैसे हमारे मालिक-मालकिन का स्वभाव सुधरा, ऐसइ सब नौकरों के मालिकों का सुधरे।

अब श्रीमती दास ने श्रीमती अविनाश को सुझाव दिया कि श्री अविनाश तो काम से लग गये, अब वे महिलाओं के कुछ आयोजन अपने घर पर किया करें। इससे महिलाओं में उनका अलग स्थान बनेगा। श्रीमती अविनाश को प्रस्ताव पसंद आ गया। इसके बाद महिलाओं की बैठक श्रीमती अविनाश के घर पर होने लगी। चाय और सुस्वादु नाश्ते के साथ महिलाओं के विभिन्न कार्यक्रम होते। कभी कवयित्री सम्मेलन होता, तो कभी नाटक अभिनय। और कुछ न होता तो गप ही लड़ती। ज़िंदगी बड़ी रंगीन हो गयी।

फिर श्रीमती दास की सलाह पर श्रीमती अविनाश कुछ समाजसेवा के कार्यक्रम भी करने लगीं। कभी सभी महिलाएँ गरीब मुहल्लों में निकल जातीं और वहाँ महिलाओं को सफाई की ज़रूरत और उसके तरीके सिखातीं। कभी गरीबों के बच्चों को बिस्कुट टॉफी बाँट आतीं। उस दिन सभी महिलाएँ बहुत सुख और संतोष का अनुभव करतीं। उन्हें लगता उन्होंने समाज के प्रति अपना कर्तव्य पूरा कर दिया है। ऐसे सब कर्तव्यों की खबर अखबार में ज़रूर भेजी जाती और वह मय फोटो के छपती। श्रीमती अविनाश ऐसे सब अखबारों की कटिंग सहेज कर रखतीं।

श्रीमती अविनाश कविताएँ सुनते सुनते खुद भी कविता करने लगीं। जब भी फुरसत मिलती, वे कुछ लिख डालतीं। कभी फूलों पर, कभी आकाश पर, गरीबों की ज़िंदगी पर। श्रीमती दास और अन्य महिलाएँ उनकी कविताओं को सुनकर सिर धुनतीं और गरीबों की हालत का मार्मिक चित्रण सुनकर आँखों में आँसू भर भर लातीं।

इस तरह अविनाश दंपति की ज़िंदगी की झोली खुशियों से भर गयी। कोई अभाव नहीं रह गया। समय पूरा-पूरा बँट गया, कुछ ‘कल्चरल’ कार्यक्रमों को, कुछ गरीब-दुखियों को। अब श्रीमती अविनाश हर नयी मिलने वाली को नेक सलाह बिन माँगे देती हैं, ‘भैनजी, ‘लाइफ’ को ‘हैप्पी’ बनाना है जो ‘कल्चर’ ज़रूर करना चाहिए। बिना ‘कल्चर’ किये ‘लाइफ’ का मज़ा नहीं है।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈