☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 118 ☆

☆ “आज की मधुशाला (काव्य संग्रह)” – डॉ संजीव कुमार ☆ चर्चाकार – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है डॉ संजीव कुमार जी के काव्य-संग्रह “आज की मधुशाला” की समीक्षा।

पुस्तक – आज की मधुशाला

लेखक  – डा संजीव कुमार

प्रकाशक – इंडिया नेटबुक्स, नोयडा

संस्करण –  २०२२,

मूल्य – ३५० रु

☆ एक सदी के अंतराल से मधुशाला का सार्थक रिमेक – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

मनोभावना और सरोकारों को स्पर्श करता साहित्य अमर हो जाता है. हरिवंश राय बच्चन की मधुशाला ऐसी ही अद्भुत काव्य कृति है, जिसके लक्षणा और व्यंजना अर्थ अमिधा अर्थो से कहीं ज्यादा व्यापक और मर्मस्पर्शी हैं. वर्ष 1935 में प्रकाशित मधुशाला के अनगिनत संस्करण पुनर्प्रकाशित हो चुके हैं, अनेक भाषाओ में इसके अनुवाद और भावार्थ तथा आध्यात्मिक व्याख्यायें की गई हैं. उमर खैय्याम की रूबाइयों से प्रेरित मधुशाला हिन्दी साहित्य की धरोहर है. मधु, मदिरा, हाला (शराब), साकी (शराब पड़ोसने वाली),  प्याला  (ग्लास), मधुशाला और मदिरालय की मदद से जीवन की जटिलताओं की सरल, गेय व्याख्या ने इसे रसिक स्वरूप में प्रतिष्ठित किया. बाद में नृत्य-नाटिका, आडियो व विभिन्न स्वरूपों में मधुशाला की अनेक प्रस्तुतियां होती रही हैं. रुबाईयों के सहज छंद बार बार अनेक कवियों के द्वारा अपनाये जाते रहे हैं. बच्चन जी के स्वर्गवास पर मैने “नीर नर्मदा का मधु है” लिखकर उन्हें श्रद्धांजली दी थी..

“कण कण शंकर बन आप्लावित ऐसी है माँ की मधुशाला,

माँ के दर्शन से पायें सुदर्शन को बन साकी पीने वाला”.

डा संजीव कुमार वर्तमान साहित्य जगत में वह नाम बन गया है, जो श्रेष्ठ विगत का अध्ययन कर, वर्तमान पर संधारित करके नितांत नया बनाकर आज के हिन्दी प्रेमी विश्व के लिये नूतन गढ़ रहे हैं. मुझे खुशी है कि मुझे डा संजीव कुमार रचित आज की मधुशाला के अध्ययन का सुअवसर मिला. मूल मधुशाला में १३५ हिंदी रुबाईयां हैं, उसी का अवलंब लेकर आज की मधुशाला में भी डा संजीव कुमार ने १३५ रुबाईयां ही लिखी हैं, वही शैली है बस दृश्य परिवर्तित हैं. बीसवीं सदी के प्रारंभिक दशको में सूफी वाद का प्रतिनिधित्व करती मूल मधुशाला लिखी गई थी. डा संजीव कुमार की आज की मधुशाला को पढ़ते हुये  ऐसा लगता है कि एक सदी के अंतराल से पुनः स्टेज का गिरा हुआ पर्दा उठा है और मूल मधुशाला का सार्थक रिमेक हिन्दी प्रेमियों के लिये आया है.

उदाहरण देखिये, पहला ही पद है…

मधुशाला सौगात मानकार दिल ने सदा संभाली है,

हरि की इच्छा नेह समझकर हमने अब तक पाली है.

युग बदला है जीवन बदले बदल गई साकी बाला,

मौन ताकती रहती व्याकुल अब तो सबको मधुशाला.

या आत्म केंद्रित युग परिवर्तन पर यह देखिये…

प्यास तपाती थके पांव से

नाच नहीं पाता कोई

प्याला लेकर साकी बनकर

आज नहीं गाता कोई

४६ वीं रुबाई में हरिवंश राय बच्चन जी ने लिखा था…

दुतकारा मस्जिद ने मुझको कहकर है पीनेवाला,

ठुकराया ठाकुरद्वारे ने देख हथेली पर प्याला,

कहाँ ठिकाना मिलता जग में भला अभागे काफिर को?

शरणस्थल बनकर न मुझे यदि अपना लेती मधुशाला।।४६।

आज की मधुशाला में वहीं पर डा संजीव कुमार लिखते हैं…

मंदिर मस्जिद के विवाद में बडी सियासत होती है

देख दिलों की आज दूरियां साकी घायल होती है

कहाँ शरण पीने वाले को कहां मार्ग का दर्शन है

भटक रहा हे प्याले के संग वह ढ़ूंढ़ रहा हे मधुशाला…  ४६

किसी रचना के इस तरह के महत्वपूर्ण कालांतरण कार्य हेतु मूल कवि के चोले में परकाया प्रवेश कर यथा स्वरूप रचना करने में डा संजीव कुमार की सफलता हेतु वे हिन्दी जगत की बधाई के सुपात्र हैं. यह आज की मधुशाला उसी तरह बारम्बार पढ़ी जायेगी जैसे मूल मधुशाला सदैव प्रासंगिक बनी हुई है. डा संजीव कुमार स्वयं इंडिया नेटबुक्स, नोयडा के निदेशक हैं, कहना न होगा कि पठनीय सामग्री के साथ साथ किताब का प्रकाशन, प्रस्तुति, कागज,  त्रुटि रहित मुद्रण आदि सब कुछ उत्कृष्ट कोटि का वैश्विक स्तर का है. मैं और उदाहरण देकर या रुबाईयों की व्याख्या करके आपके स्वयं पढ़ने के आनंद को कम नहीं करना चाहता, इसलिये बस यह लिखते हुये कि तुरंत आर्डर करें और इत्मिनान से मूल मधुशाला के संग संग आज की मधुशाला पढ़ें, और वैचारिक मधुर द्वंद का आनंद उठायें. एकदम पैसा वसूल, अवश्य पठनीय तथा संग्रहणीय किताब है.

अंत में एक सौ तैंतीसवा छंद देखिये..

पहले पंथ मतो का इतना उग्र रूप न दिखता था

अब तो घड़ी घडी लिखते हैं सब जैसे सेक्युलर बन के

पहले फिरते थे मधुशाला के पीछे याची बनकर

अब तो सबने छोड़ दिया है फिर फिर जाना मधुशाला

युग परिवर्तन को महसूस कीजिए.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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